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षष्टांग वाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4.1
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ततेनं ते मागंदिय दारए अम्मापियरो एवं वयासी-इमे भी जाया ! अजग जाव परिभाइत्तए अणुहोह ताव जाया ! विउले माणुस्सए इसक्काररूमदए किंभो सपञ्चवारणं निरालंबणेणं लवणसमुद्दोत्तारेणं ॥ एवं खल पुत्ता ! दुवालस म जत्ता सोवसग्गयावि भवति, तं माणं तुभ दुवे पुत्ता दुवालसंमि लवण जाव उगाहेह, माहं तुम्भं सरीरस्स वावत्ती भविस्सइ ॥ ५ ॥ ततणं ते मागंदिय दारए अम्मापियरी दोच्चं ितच्चपि एवं क्यासी-एवं खलु अम्हे अम्मताओ ! एक्कारसवारा लवण
जाव उगाहित्तए ॥ ६ ॥ तएणते मागिदिय दारए अम्मापियरो जाहे तमि गो पीछे भाये परंतु अब हम बारहवी वक्त लवण ममुद्र में प्रवास करना चाहते हैं ॥ ४ ॥ तब जन मादियो के पुत्रों को मातपिताने ऐमा कहा कि अहो पुत्रो ! तुम्हारे बाप दादाओं से प्राप्त कराया हुवा द्रव्य भोगत मी कमी ह वे न हैं। इतना है इससे इमे नवलग रहे वहां लग भोगवा, बहा पुत्रो!इतना ऋद्ध मत्कार समुदाय होते हुवे भी निकारण लवण समुद्र में प्रयास करने का क्या मतलब है ? और भी अ बारहवी समुद्रयात्रा उपसर्ग रूप होती है इससे तुम दोनों समुद्र बारहवी यात्रा मत करो. तुम्हारा शरीर में बाधा पीडा होगा. ॥ ५ ॥ अब माकंदिय के पुत्रोंने दो तीनवार ऐसा कहा कि अहो मात पिता! हमने अग्यारह वक्त लवण समुद्र में प्रयास किया यावत् बार हवो वक्त हम प्राप्त करेगे ॥ ६॥ जब
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- जिनरक्ष जिनपाल कानववा अध्ययन
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