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अष्टांङ्ग बताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 128
अस्थरस ३भागी भविस्सह ॥ततेणं धण्णसत्यवाहं दोच्चेव पुत्ते एवं वयासी-माणं ताओ! अम्हे जेटुं भायरं गुरुदेवयं जीवियाओ ववरोवेमो, तुब्भेणं ताओ ! मम जीवियाओ वववेह जाव आभागी भविस्सह; एवं जाव पंचमे पुत्ते ॥ २६ ॥ ततणं से धण्णेसत्यवाहे पंच पुत्ताणं हियं इच्छियं जाणित्ता, ते पंच पुत्ते एवं वयासी-माण अम्हे पुत्ता ! एगमवि जीवियाओ ववरोवेमो, एसणं मुमुमादारियाए सरीरे णिप्पाणे जाव जीवियाओ विप्पजढे, तं सेयं खलु पुत्ता अम्हं सुसमाए दारियाए मंसंच सोणियंच आहा रित्तए, ततेणं अम्हे तणं आहारेणं अयत्थद्धा समाणा रायगिहं णयरं संपाउणियारसामो ।'
ततेणं ते पंच पुत्ता धणेणं सत्थबाहेणं एवं वुत्तासमाणा एयमटुं पडिमुणेति ॥ ३७ ॥ लगा कि अहो तात ! हमारे गुरु देव समान ज्येष्ट भ्राता को आप मत पारो परंतु तुम मुझे मारकर भोगवो यावत अर्थ धर्मपुण्य भोगी बनोगें. इसही प्रकार पांच वे पत्र तक सबने कहा.॥ ३६॥ पन्ना सार्थवाह पांचों पत्रों को हित चिंतक जान कर उन को ऐसा कहा अहो पुत्रा ! तप किसी
को हम नहीं मारेंगे. यह सुषुपा पुत्री प्राण रहित यावत् निचेष्ट मरीहुइ ही है. इस से सुषुपा पुत्री के ॐ मांस व रुधिर का आहार करना अपन को श्रेय है. इस आहार के आधार से राजगृह नगर में अपन
पहुंच सकेंगे. पांचों पुषोंने धन्ना सार्थवाह की बात का स्वीकार किया ॥ ३७ ॥ पन्ना सार्थवाह पांचो।
48सुपा दारिका का अठारहवा अध्ययन 488
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