________________
अर्थ
4 पांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध
॥ १४७ ॥ ततेणं मल्लीअरहा सीहासणाओ अब्भुट्ठेति, सीहासणाओ अब्भुट्टेत्ता जेणेव मणोरमासीया तेणेव उत्रागच्छइ, २ ता मणोरमंसीयं अणुक्याहिणि करमाणी मणोरमंसीयं दुरहति; २त्ता सीहासवरगए पुरत्थाभिमुहे सन्निमन्ने || १०८ ॥ ततेणं कुंभएराया अट्ठारस सेणिप्पसेणिय सहावेइ २त्ता एवं वयासी- तुमेणं देवाणुपिया व्हाया कयवलिकम्मा जा सवालंकारविभूसिया मस्सि सीयं परिवहह || जाव परिवहति ॥ ततेणं सक्केदेविंद देवराया मनोरमाए दक्खिणिलेणं उवरिया गेहइ, ईसाणे उत्तरिल्लवाहं गेहइ, चमरे दाहिणिलं उपरिल्लं हेट्ठिल्लं रखी ॥ १४७ ॥ मी अरहंत सिंहासन पर से उठे सिंहासन से उठकर मनेरमा शिविका की पास गये. मनोरमा शिविका के प्रदक्षिवृत फेरकर गोरम शिविका में प्रवेश कर उस में सिंहासन पर पूर्णभिमुख से बैठे ॥ ४८॥ तब कुंभराजाने अठारह श्रेणो. भठारह प्रश्रेणी को बोला और कहा कि अहां देश मे ! तु ज्ञान कर पवित्र कर यावत् सर्वालंकार से विभूवित बनकर मल्लों की शिविका उठायावत् उनोंने वैसे ही किया. तब शक्रेन्द्र मनोरमा शिवका की दक्षिण तरफ की ऊपर की बांह ग्रहण कर बरं, ईशानेन्द्र उत्तर तरफ की ऊपर की बांदा ग्रहण कर चळे, चमरेन्द्र दक्षिण तरफ की नीचे की बांश ग्रहण कर चले, बलेन्द्र उत्तर
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
48 श्रीमल्लानाथजी का आठवा अध्ययन
४०५
www.jainelibrary.org