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सूत्र
अथ
- 480 हातघर्षकथा की प्रथम श्रुतस्कन्ध 418+
उचरिं जलस्सटुवेति: १ता में दिनं पिसायां पडिसाहरति २ चा दिव्यं देव चिउम्र २ अंतलिक्खि पर्डित्रणे सखिखिनिय जाव परिहए अरणगंसमणवस एवं - भो अरगा ! धन्नांसिणा तुमं देवाणुप्पिया! जाव जीत्रियफले जस्सणं तब rajथे पावणे इमेयारूवा पडिवची लापता अभिसमन्नागय॥ ॥ ६५ ॥ एवं खलु देवा... विषा ! सक्केदेविंददेवरायां सोहम्मेकप्पे सोहम्मं डिसएविंमाणे सभाए सुम्माप बहुणं देणं मज्झगए महया २ सद्दणं आइक्यति ४ एवं खलु जंबूदीवेदीने भार बासे चंपारणयरीए अरहन्नतेसमणोवाए अभिगयजीवाजीये, नो स्वलु सका
यावत् उस जहाज को शनैः नीचे उतारी और पानी पर रखी. उस दीव्य पिवादरूपका साहरन करके {दीव्य देवरूप का वैक्रेव किया और ऊपर जाकाश में रहा हुआ घुमरीयोंका चम चम शब्द करता हुवा वखाभूषण धारन कर अरश्मक श्रावक को इस प्रकार कहने लगा-अहो देवानुप्रिय ! तुम को धन्य है तुमारा जीवित सफल है क्योंकी तुमको निर्व्रन्य के प्रवचन में इमप्रकार प्रतीति प्राप्त हुई है ।। ६५ ।। अहो देवानुयि ! सौधर्मा देवलोक के सौधनवंतमक विमानकी सुधर्मा सभांमें बहुत देवोंकी बीचमें शक्रेन्द्रने जोर २से ऐसा कहा या कि इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में चंपा नगरी में अरहमक नाम का जीवाजीव का स्वरूप मानवाला
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श्री मल्ली नावजी का आठवा अध्ययन 18+
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