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14 दाम्गरस सम्बनो समंती मग्गण गवेसणं करमाणी २.. वासघरस्म दारं विहाडिय..
पासति पासित्ता एवं वयास:-गएणं से सागरए दारए तिकटु,ओहयमण संकप्पा जाव झियायति ॥ ५४ ॥ ततेणं मा भद्दा सत्थवाहिणी कल्लं पाउदास चडिय महावेइ २त्ता एवं वयामी गच्छहणं तर देवाणुप्पिया! वह वरस्स मुह धोवणियं उत्रणेह ततेणं सा दासचे डी भहाए एवं वुत्ताममाणी एयमटुं तहत्ति पडिमुणति २ त्ता मुहधोवणियं ... गेण्हति २. जेणव वासघर तेणेव उवागच्छइ २ ता सुकुमालियं जाब झियायमाणिं पासति पासित्ता एवं वयासी-किण्णं तुम देवाणुप्पिया ! ओहयमाण जाव झियाहि?
ततेण सा मुकुमालिया दारया तंदास चडियं एव वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया पुत्र की चारों तरफ गोषणा की. परंतु आवास ग्रह के द्वार खुले देखकर ऐमा बोली कि सागर चला गया. यों करके पश्चाताप करती हइ यावत् आध्यान करने लगी. ॥ ५४ ॥ भद्रा सार्थवाहिनीने प्रभात होत दास व चाटयों को बालाइ और कहा अहो देवानुप्रिये ! तुम वरवधू के मुख धाने के लिये पानी में ल जा. वे दस चहियों भद्रा भार्या की ऐसो आज्ञा सुनकर इष्ट तुष्ट हुई. और इस बात को तथ्य करके मुख प्रक्षालन के लिय पानी लेकर उन के आवाम गृहमें गई. वहां मुकुमालिका कन्या को आत ध्यान करता हुई दखकर बाली अहो देवानुप्रिये ! तुम क्यों आतध्यान करती हो, तब उसने उत्तर दिया कि
कविता बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक
प्रकाशक-मजावदर लाला सुरवात महायजी माल:प्रसादजी
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