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अर्थ
488+ षष्टां ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम स्कन्ध 4+
सागरए दारए मम सहपत्तं जाणित्ता मम पासाओ उट्ठेति २ ता वासघर दुवारं अवगुणेति २ जाव पडिगए ॥ ततेणं अहं मुहुतंतरस्स जाब दारं विहाडियं पासामि गएणं से सागरए चिकट्टु ओहयमाण जाब झियामि ॥ ५५ ॥ ततणं सा दास चेडी सुकुमालियादारियाए एयमटुं सोच्चा जेणेव सागरदत्ते सत्थवाहे तेव उबागच्छइ २ सागरदत्तरस एयमटुं णिवेदेति २ ॥ ५६ ॥ ततेनं से सागरदत्ते दास डिए अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म आमुरत्ते जेणेव जिणदत्तस्त्र सत्यवाह गिहे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता जिनदत्तं सत्यवाह एवं वयासी - किण्णं देवाणुपिया !
अहो देवानुप्रिये ! मुझे सुख से सोती हुई देखकर सागरपुत्र मेरी पास से उठ कर आवास गृह के द्वारों खोलकर बावत् चला गया हैं. मैं थोडी दर में जाग्रत होकर देखने लगी परंतु आवास गृह के द्व खुल्ल देखकर सागर चला गया ऐसा जान कर यावत् आर्तध्यान करती हूं. ॥ ५५ ॥ सुकुमालिका की पास से ऐसी बात सुनकर वे दासियों सागरदत्त सार्थवाह की पास आई और सागर दत्त को रूब बात निवेदन की. ॥ ५६ ॥ दासियों की पाल से ऐसा सुनकर सागरदत्त आरक्त हुवा और जहां जिनत सार्थवाह का गृह या वहां आया और जिनदत्त को ऐसा कहने लगा कि अहो देवानुभिष
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4+ हैपदी का सोलहवा अध्ययन 4
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