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+8 अन्नादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक सपिजी
एवं जुत्तंबा पत्तवा कुलाणरूवंवा कुलसरिसंवा जंण्णं सागरए दारए सुकु मालिय दारियं अदिट्ठदोसपइवियं विषजहाय इहमागए, बहूहि खिजणियाहिय रुंटणियाहिय उवालंभंति ॥ ५७ ॥ ततेगं जिणदत्ते सागरदत्तस्स सस्थवाहस्म
अंतिए एवमटुं सोचा निपम्म जेणेव सागरए दारए तेणेव उवागल्छइ सागरयं दारयं एवं वयानी-दङ्गं पुत्ता तु कयं सागरदत्तस्स सस्थवाहस्स गिहातो इहं हवमागए तेषां तं गच्छहण तुम पुत्ता ! एवं मविगए सागरदत्तरस गिह
॥ ५८ ॥ ततेणं सागरदारए जिणदत्तस्स एवं वयासी-अवियांइ अहं ताओ! यह क्या योग्य है. प्रीन कारी है, कुल का रूफ है. ग कुलको समान है कि तुम्हारा सागर पुत्र हमारी पतिव्रता सुकुमालिा पुर्वी का किसी प्रकार देखे विस छोडकर यहां चला आया. यह बहुन खेद जनक व रुदजनक है. में कहकर अपने कर्मोको उपासम्म दन लगी. ॥५७॥जिनदत्त सार्थवाह सागरदत्त की पाक मे ऐरा सुनकर सागर पुत्र की पास गया और कहा कि अर पुत्र ! नू मागरदत्त सार्थवाह के गृह से यहां चला आय. या वह कार्य किया. अब तू विन लिम्ब मे उनके घर जा. ॥ ५८ ॥ तब सागरदत्त जिनदत्त का ऐसा कह लना कि अहो गात ! मैं पर्वत पर से पडूं. वृक्ष पर से १५, मरुस्थलि
.प्रकाशक-राजाकहादुर लाहा सुखदवसहायनाबालाप्रमादजी
अर्थ
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