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+ षष्टाङ्गवासाधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 424
- वासुदेक्स्स लवणसमुदं मझं मझेणं वीतीवयमाणरस सेयापीयाइ धयाइ पासति २त्ता
एवं वयासी-एसणं मम सरिस पुरिसे कण्हे वासुदेवे लवणसमुदं मझं मझणं वतिीवयति तिकटु, पंचजन्नं संखं परामुसति परामुसित्ता मुहवायं पूरिय करेति, तएणसे कण्हे वासुदेवे कपिलस्स वासुदेवरस संखसई आइण्णे इत्ता पंचयण्ण संखमुहवायं पूरयं करेइ ततेणं दोवे वासुदेवा संखसई समायरिं करेंति ॥ १८४ ॥ ततेणं से कविले वासदेवे जेणेव अमरकंका तणेव उवागच्छड २सा अमरकंक रायहाणिसंभग्गं. तोरणं जाव पासति पालित्ता पउमणाभं एवं वयासी-किंन्नं देवाणुप्पिया ! एमा
अमरकंका संभग्गा जाव सन्निवहाया ? ॥ १८५ ॥ ततेणं से पउमणाहे कविलं समुद्र की भरती का पानी आता था वहां आये. और लवण समुद्र की मध्य बीच में जाते हुवे कृष्ण वासुदेव के रथ की श्वेत व पाली वनाओं का अग्र भाग देखा. तब मन में बोलने लगे कि यह मेर समान उत्तम पुरुष कृष्ण वासुदेव लवण समुद्र में जाते हैं यों कहकर पंचजन्य शंख लिया. और अपने " मुख से उस का नाद किया. तब कृष्ण वासुदेवने कपिलवासुदेव के शंखका शब्द श्रवणकर अपना पंचजन्य शंख को भी बनाया. तब दोनों बासुदेवने शंखनाद से समाचारी की ॥१८४॥ वहां से कपिल वासुदेव अमरकंका राज्यधानी में आये और भवन तोरणों वगैरह पड देखकर पद्मनाभ राजा को पूछा कि अहो देवानप्रिय! इस अमरकंका नेगरी के तोरणों ऐसे क्यों भग्न हुए हैं ? ॥ १८५ ॥ तब पमनाभ कपिल वासुदेव को ऐसा
द्रौपदी का मोलहवा अध्ययन 48+
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