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सूत्र
भावार्थ
403 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
मियमर रिभिति गंभिर सस्सिरीयाहिं गिराहिं संलवमाणि पडिबोहइ ॥ १८ ॥ पडिबोहिता; सेणिएणं रण्णा अग्भणुणायासमाणी णाणामणिकणगरयणभत्तिचिचसि भदासणंसि सिइ २ तासत्या विसस्था सुहासणवर, सुहासणवरगया करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिकट्टु सेणियंशयं एवं वयासी एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! अजतंसि तसं तारिसंगसि सयणिजंसि सलिंगणवाहिर जाव भियग वयणमड् वयंतंगयं सुमिगे पासित्ताणं डिबुद्धा, तं एसणं देवाणुनिया ! उरालस्स केमणे कलाणे फलवित्तिविसेसे भविरसइ ? ॥ १९ ॥ तरणं से सेपिएराया धारणीदेवी अंतिए. गंभीर व सक्षिक, वाणी से बोलाती हुड जागृत करने लगी ॥ ६८ ॥ श्रेणिक राजा को जाग्रत करके उन की आज्ञा से विविध प्रकार के मणि, कनक रत्नों व चित्रों वाला भद्रासनपर बैठकर स्वस्थ हुइ. फोर सुखासन में प्रधान ऐना सिंहसन पर रही हुइ दोनों हस्त तल जोडकर मस्तक से आवर्त देकर व अंजली करके श्रेणिक राजा को ऐसा बोली- अहो देवानुप्रिय आज मैं पुण्यवंत योग्य शयन में सूते यावत् मेरे मुख में मांश करता हुआ गज हस्ति देखकर मैं जाग्रत हुई. इसलिये अहो देवानुप्रिय ! इस उदार महाराजका क्या कायाणकारी फल होगा! ||१९|| वह श्रेणिकराजा धारणी देवी से ऐसा सुनकर हृष्टतुष्ट यावत् अनंदित हुआ और
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* प्रकाशक- सजावदादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*
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