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षष्टमांगावाधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4884
रूवं उरालं कल्लाणं सिर्व धर्ण मंगलं सस्तिरिय महासुमिणं पासित्ताणं पडिबुद्धा समाणि हद्वतुट्ठा चित्तमाणंदिया पीयमाणा परमसोमाणसीया हरिसवस विसप्पमाणहियया धाराहयकदंबपुष्फगंपिवसमूससियरोमकूवे, तं सुमिणं उगिण्ह २ सयणिजाओ उट्टेइ पायपीढाओ पचोरुहइ २ त्ता अतुरिय मचवल मसंभंताए अबिलीबयाए रायहंससरिसीगईए जोणामेव तेसेणियेराया तेणामेव उवागन्छइ २ त्ता सेणियंरायं ताहिं इट्ठाहिं कताहि पियाहिं मणुण्णाहिं माणामाहि उरालाहिं कल्लाणहिं .. सिपाहिं धण्णाहिं मंगलाहिं सस्सिरियाहिं हिययगमणिज्जाहिं हिययपल्हापणिज्जाहिं । उस समय वह धारणी रागी ऐसा उदार, प्रधान, मांगलिक ससश्रिक, महा स्वप्न देखकर जागृत होने मे Fबहुत इष्ट तुष्ट व आनंदित हुइ. मन में अच्छा भाव उत्पन्न हुवा, हर्ष से हृदय विकसित हुवा, मेघ की
धारा से सींचाया हुवा कदंब के पुष्प समान रोमकूप खडे हुवे, फीर उस स्वप्न को ग्रहण कर अपने शयन से उपस्थित हुइ पाद पीठिका से नीचे उतरी और शीघ्रता, चपलताव संभ्रांत रहित वबिलम्ब रहित राजहंस समान गति से श्रेणिक राजाकी पासगइ और श्रेणिक राजाको इष्ट कारी,प्रियकारी, मनोज, मनोहर उदार,se कल्याणकारी मंगलकारी, धन्यकारी सश्रिक, हृदय को मुहासे, हृदय को आनंद करने वाले मृदुमपुर
सिस (मेषकुमार) का प्रथम अध्ययर 42
भावार्थ
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