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अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *
वलिगुच्छोच्छाइयं सुरम्मंबेभारगिरिक्कडगपायमूर्ल सव्वासमंताऔ अहिंडमाणीओ २ दोहलं विणीयंति, तं जइणं अहमविमेहेसु अब्भुगए. जाव दोहलविणिज्जामि. ॥३३॥ तएणं साधारिणीदेवी तंसि डोहलसि अविणिजमाणंसि असंपत्तदोहला असंपुण्ण दोहला असम्माणियडोहला, सुक्का भुक्खा निम्मंसा ओलुग्गसरीरा पमगल्ल दुबला किलंता उम्मीथपयवयणकमला णयण पंडइयमखी, करयलमलियच्च चंपगमालाणित्तेया दिणविवण्णवयणा, जहोचिय पुप्फगंधमलालंकार हारं अणभिलसमाणी कीडारमणकिारयंच पस्हिावेमाणी दीणा दुम्मणा जिराणंदा भूमिगएदिट्ठीया ओहयमण आच्छादित सुरम्य मनोहर वेभार पर्वन के मूल में चारों तरफ. फीरती हुइ जो स्त्रियों दोहल. मपूर्ण करती है उसे घन्य है. इस तरह मैं भी अकाल मेघ में दोहला संपूर्ण करूं तो मैं भी धन्य होवू ॥ ३३ ॥ अब धारणी देवी पूर्वोक्त दोहल पूर्ण नहीं हाना देखकर, मेघादि उत्पत्ति का अभाव जानकर, दोहला अस.
। जानकर शुष्क होने लगी, निस्तेज हुइ, मांस रहित हइ, गलित गात्रोंवाली हुई, शरीर मलिन दुर्वल हुवा, स्नान व भोजन के त्याग से खेदित हुई, अधो मुख-भूमि तरफ मुख करके बैठी, मुख का
पाण्डर होगया, जैसे चंपा की कली हस्त में मसलनेसे कुमलाती है वैमे होगई, निस्तेज व दीन मनवाली हुई, यथायोग्य पुष्प गंध माला व अलंकार से अरुची करने लगी, क्रीडा स्पणादि क्रिया. का त्याग ।
.प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदेवसहायजी ज्यालाप्रसादजी.
भावार्थ
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