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अमोलक ऋोजी +
अर्थ/
“मझें सराण वारसति, गाप लत्ते रन्न झियाति, रन्नो पलित्ते गामे झियाति,
आउसे ततलिपुत्ता कउ वयामा ॥ ततणं से तेयलिपुत्ते पोहिलं ए क्यामीभीयस्म खलु भो पवजा सरणं, उक्कंठियस्म सदेसगमणं, छहियस्स अन्न, ति सबस्त पाणं, आउग्रस भेसज्ज, मातियस्म रहस्सं, आभेजुत्तस्स पच्चयकरणं, अडाणं परिस्संतस्म वाहणममण, तरिउकामरस पहणं, किचं पर, अभिजियकामस्म
सहाय किच्च, तस्स दंतस्स जितादयस्म एत्तो एगमवि ण भवति। ततणं से पोट्टिले और उधर अटी में बड़ा दाव लग रहा है इधर अटी जल रही है तो ग्राम में दाह लग रहा है. अहो तकी पुत्र ! ऐसे समय में कय जाना ? तव तेतली पुत्रने पहिला देव को उत्तर दिया कि भयभीत नुष्य को चरित्र का शरण है, अपन देश में जाने को उत्सुक मनुष्य को देश में जाने का शरण है, क्षुध तुर को अन्न का, तृप तुरको पानीका, रोगोको औषधा, मायावी को गुप्तका, अभियुक्त का विश्व स कराने का, पार्ग में श्रन पुरुषको वाहन से जाने का, तीरने की इच्छावाले को नावा का, कामी पुरुष को सखा का शरण है, परंतु कंध का निग्रह करनेवाले पांचों इन्द्रियों व मनको जीतनेवाले को उक्त भय में मेरे एक भी नहीं है क्योंकि मामयिक परिणनि रूप शरीर में मिलापता होने से परणादिक भय का प्रभाव से होता है. और मरणादिक भय के अभाव से अन्य सब भय नष्ट हो जाते हैं. इस तरह पहिला देवन है।
पात्रक-राजाबहादुर लाला चदवसहायजी ज्वालाप्रसादज.
अनुमानकाला
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