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सूत्र
का प्रथप शुनस्कन्ध 44 षष्टांड ज्ञानाथा
देवे तेतलिपुत्तं अमचं एवं वयामी-तुहुणं तमं तेतलि पुत्ता एयमटुं आयाणाहि तिकटु,दोच्चपि तच्चवि एवं क्यइ २त्ता जामेव दिसिंपाउन्मए तामेव दिसिंपडिगए ॥५७॥ तलेणं तस्म तेताल पुत्तरस सुभेणं परिणामेणं जाइसरणे समुप्पण्णे ॥५८॥ ततेणं तेयलिस्स अयमेयारूत्रे अझथिए जाव समुपन्न-एवं खलु अहं इहेव जंबुद्दीवेदीव महाविदहवासे पोक्खलावई विजए पोंडारगिणीए रायहाणीए महापउमेणामं राया होत्था । ततेणं अहं थेगणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव चे दस पुवाति बहुणि वासाणि सामन्नपरियागं
पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए महासुक्के कप्पे देवत्ताए उबवण्णे तएणं अहं ताओ तेनली पुत्र के पास से कहलाया कि भयभीत मनुष्य को चारित्र का ही शरण है. ऐसा कहलाकर वा पोट्टिला देव कहने लगा अहो तेतली पुत्र! तुमने मुष्ट कहा. और वैमे ही अंगीकार करना. ऐसा दो तीन बार कहकर अपने स्थ न पीछा गया।।५७॥ ततलो पुत्र को शुष ध्यान व परिणाम जास्मिरण ज्ञान उत्पन्न हवा॥५८॥तेतही पुषको जतिस्मरण ज्ञान होने से ऐमा अध्यक्षमाय हुबा कि मैं जम्बूदीप के महाविदेह क्षेत्र में पुष्करावी. विजय की पुंडरीक र उपधानी में महापअराजा था. तत्पश्चात स्थविर की पास मुंडन होकर यावत चौदह पूर्व का अध्ययन कर बहु। वर्ष तक संयम पाला र एक मास की संलेखना करके महत
+8+ नेतले.पुत्र का चउदावा अध्ययन 478
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