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अर्थ
488+ षष्ठाङ्ग ज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रुतसंध
तेणेव उवागच्छइ २ सा जत्र थावच्चापुत्ते अणगारे तहेव सिद्धा ॥ ८४ ॥ एवमे समणाउसो ! जोनिग्गंथोवा णिग्गंथीवा जाब बिहरिस्सति ॥ ८५ ॥ एवं खलु अंबु ! समणेण भगवया महावीरेणं जाव संपतेणं पंचमस्स नायज्झयणस्स अयमद्वे पन्नन्त ॥ तिमि || पंचमं नायज्झयणं सम्मतं ॥ ५ ॥ गाथा ॥ सिढलिय संजम, कज्जावि होइउं उज्जमंति ॥ जइ पच्छा संवेगाओ || तेसेलओन्त्र आराहवा होइ ॥ १ ॥
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॥ ८४ ॥ इसी तरह जो साधु अथवा साधी प्रमाद रहित विचरते हैं वे इस लोक में चारों तीर्थ के पूज्यनीय होते हैं और परलोक में सिद्ध बुद्ध होकर निर्वाण प्राप्त करते हैं ॥ ८५ ॥ भगवान श्री महावीर स्वामीने झाता सूत्र के पांचवा अध्ययन का उक्त अर्थ कहा.
अहो जम्बू ! भ्रमण
यह पांचवा अध्ययन
संपूर्ण वा ॥ ५ ॥ उपसंहार - संयम कार्य में शिथिल बनकर भी पीछे से वैराग्य से उद्यमवन्त होते हैं। वे साधु शेलग राजर्षि समान आराधक होते हैं. मोक्ष सुख प्राप्त करते हैं ॥
इति पांचवा अध्याय समाप्तम् ॥
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+-- शेलग राजर्षि का पांचवा अध्ययन 428+
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