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+ षष्टांङ्ग ज्ञाताधर्षकथा का प्रथम श्रूतस्कन्ध 43:
खंतीए जाव बंभरवासेणं ॥ तयाणंतरंचणं अहिययराए खंतीए जाव बंभचेर वासेणं ॥ एवं खलु एएणं कमेणं परिवड्डमाणे जाव पडिपुण्णे बंभचरवासेणं ॥ एवं खलु जीबा वढुतिया हयंतिया ॥ ४ ॥ एवं खलु समणेणं भगवया महावीरण जाब संपत्तणं दसमस्स न यझयणस्स अयमट्टे पन्नत्ते, तिबेमि ॥ दममं णायज्झयणं सम्मत्तं ॥ १० ॥ गाथा-जह चदा, तह साहु, राहुवरोहो जह तहा पमाओ ॥ वण्णाइ गुणगणो जह. तहा क्खमाइ समणधम्मा
पुणोवि पइदिणं जह हायंतो सम्बहा ससीणा सो; तह पुण्ण चरित्तो विहुं, कुसील चंद्र चतुर्दशीके चंद्र से वर्ण यात् मंडल से अधिकतर होता है ऐसे ही अहो अयुष्मन्त श्रमणों ! जो हमारे साधु साधी यावन् प्रव्रजन बनकर क्षमा यावत् ब्रह्मचर्य में अधिक होते हैं वे तदनन्तर १मा यावत् ब्रह्मचर्य में अधिकतर होने हैं. इसी तरह जीवों वृद्धि पात हैं व हीन होने हैं ? ॥ ४ ॥ अहो जम्बू ! श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने ज्ञाता धर्म कथा क दशवा अध्ययन का यह अर्थ कहा. यह दशवाई अध्ययन मंपूर्ण हुव' ॥ १० ॥ उपसंहार-चंद्रमा रूप माधु, राहु के विरोध रूप पद विषय कष यादि गांव प्रपाद, वर्णादिगुण रूप क्षमा आदि साधु धर्म हैं ॥ १ ॥ जैसे र.हु के संसर्ग मे पूर्णपा का चंद्र। निदिन होन होता हुवा अमावास्या त नष्ट पायः होता है, वैसे ही चारित्र से परिपूर्ण साधु प्रपाद के
अर्थ
चंद्रमा कादशवा अध्ययन 420
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