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का प्रथय तकन्छ
जियसत्तू गया बुद्धिस्म अमच्चस्स एवं माइक्खमा भर ४ एएमटुं नो अदात नो परियाणानि तुपाणीए मंचिति ॥७॥ ततेणं से जिया स्तृगया अन्नय कयाई हाए जाय आग्मखंधवगए महया भर चेडगरआमवाणिया णिज्जायमाणे तस्स फरिहोदयस्म अदूर मामलेणं वीइन्वयइ ॥८॥ ततेण जियमत्तगया तस्स फरिहादगरस असुभेण गधण अभिभूए समाणे, सएणं उत्तारजगणं आसग पहिति २ एगंतं अवक्कम्मइ २त्ता त वहये ईमर जाव पमितीयो एवं वयासी-अहाणं देवाणुप्पिया! इमे फारहोदए अमणुन्ने वनणं ४, से जहा णामत अहिमडेतवा जाव अमणामतराए च। ततेण ते वहवे .
ईसर ज व पनिई ए एवं वयामी-तहेवणं तं सामी ! जण्णं तुब्भे एवयह अहोण इमे सद्धि प्रध न के ऐसे कथन का जितशत्रु गनाने आदर किया नहीं व अज्छा जाना नहीं पातु मौन रहा ॥ ७ ॥ एकदा गिनशत्रु राजा स्नान कर अश्व रूढ होकर, अन्य अनक भट चेटक प अनीक की माथ होता हुवा उस पानीवाली खाइ के पाम से निकले ॥ ८ ॥ उस खड के दुर्गंधवाले पानी में पराभून होकर राजाने स्वतः के उत्तरीय वस्त्र से अपना मुव ढक लिया. और वहां से दूर जाकर बहुत ईश्वर, राजेश्वर ।
को कहने लगा कि अहो देवानु मेय ! इस खाइ का पानी अमन वर्णवाला यावत् सर्प के मुडदे की ३. दुधवाला व अमनोज्ञ है. उस समय उन सब ईश्वर यावत् सार्थवाह प्रमुख ने कहा कि अहे. ।
सबुद्ध प्रधान का बारहवा अध्ययन
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