________________
mmmmmmmmmms
बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमेलक ऋपीजी
रातो अणगारियं पतिए समाणं विपुलमा मुत्तियधणकणगरयणसारेणं लुभइ से विए एवं चेव ॥ ५२ ॥ तेणं क लेणं तेणं समएणं धम्मघोसा णामथेरा भगवंतो जाति संपन्ना जाब पुष्वाणुपुर्वि चरमाणा जाव जेणामेव रायगिहणयरे जेणामेव गुणसिलएचेइए जाव अहापडिरूवं उगहं उगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पार्ण भावमाणा विहरंति ॥ परिप्ता निग्गया धम्मो कहिओ॥ ५३ ॥ ततेणं तस्स धणस्त सत्थवाहस्स बहुजणस्स अंतिए एयमहूँ सोच्च। णिसम्म इमे एतारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था एवं खलु ! थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना इहमागया इहसंपत्ता,
तं इच्छामिणं थेरे भगवते वदामि नमामि, हाते जाव . सुइप्पवेसाति कनक ब रत्नों में लुब्ध होंगे उन का भी वैसे ही हाल होगा. ॥ ५२ ॥ उस काल उस समय में धर्म थोष नामक स्थविर भगवंत जाति संपन्न यावत् पूर्वानुपूर्षि चलते हुये ग्रमानुग्राम विचरते हुवे राजगृह नगर में गुणशील उद्यान में यथ प्रतिरूप अवग्रह याचकर सयम व तप से आत्मा को भारत हुवे बिचर रहे थे. परिषदा आई व धर्मो पदेश सनाया ॥ ३ ॥धनासार्थवाहने बहुन मनुष्यों की पास मे ऐमा सना इस उन को ऐसा विचार हुग कि यहां जाति संपन्न स्थरि भगवंत पधारे हैं, इस से उन को वंदना
प्रकाशक-राजावादर लाला सुखदेवसहायजी
अर्थ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org