________________
१९५
8षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कंध 4284
आसणाओ अम्भुढेइ कंट्ठाकाटुं अवतासेइ खेम कुसलं पुच्छइ २ ता बहाया जाव पायाच्छत्ता विउलाति भोगभोगाति भुंजमाणी विहरइ ॥ ५० ॥ ततेणं विजए तकरे चारणसालाए तेहिं बधेहिय कसप्पहारेहिय जाव तण्हाए छुहाएय परब्भमाणे कालंमासे कालंकिच्चा नरएसु नेरइयत्ताए उबवन्ने, सेणं तत्थ नेरइएजाए काले कालां भासे जाव वेयणं पचणुब्भवमाणा विहरति ॥ सेणं ततो उवहित्ता अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरत संसार कंतारं अणुपरियहिस्सति ॥ ५१ ॥ एवामेव जंबु ! नेणं अम्हं णिग्गथोवा निग्गथीवा आयरिय उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अमा
86ना सार्थवाह का दूसरा अध्ययन 4
१ अपने आसन से उठकर धन्ना सार्थवाह के गले से आलिंगन किया, उन का कुशल क्षेम पूछा, स्नान किया यावत् विपुल भोग भोगते हुए दोनों विचरने लगे ॥५०॥ वह बिजय चोर उस चरकशाला में इ.कश प्रहार यावत् लता प्रहार से मराया हुश क्षुधा तृषा से पराभव पाया हुवा काल के अवसर में काल कर नरक में नारकीपने उत्पन्न हुआ. वह बहां कृष्ण, कृष्ण वर्णवाला यावत् बेदना अनुभवता हुवा विचरता: है. वहां से नीकलकर अनादि अनंत चतुर्गतिक संसार में परिभ्रपण करेगा. ॥ ५१ ॥ अहो जम्बू ! एसे ही हमारे साधु साध्वियों आचार्य उपाध्याय की पास मुंडित बनकर दीक्षा ग्रहण करके मणि, पौक्तिक, धन,
|
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org