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सूत्र
अर्थ
*पष्टां ज्ञाताधर्म था का द्वितीय श्रुतस्कन्ध 48
जात्र
तणं ती कालीए अजाए समणीहिं निग्गंथी हिं अभिकखणं रे हीलिजमाणीए निवारिज्जमानीए इमेयारूत्रे अज्झत्थिए जात्र समुप्पज्जित्था, जयाणं अहं अगस्त्राम मज्झत्र सित्ता, तयाणं अहं सयंवसा अप्पवसा जम्पभिई चर्ण अह मुंडा भवित्ता अगारातो अनगारियं पव्वतिया तप्पभिइंचणं अहं परवसा जाया ॥ तसेयं खलु मम कलं पाउप्पभाषाए रयणीए जाव जलते पाडिएक्कयं उबरलयं उवसंपजिवाण विहरिए तिकडु, एवं संपेहेइ २ चा कल्लं जाव जलते पाडिक्क उवस्सयं गिण्हइ तरणं अनिवारिया अणाहट्टिया सच्छंदमई अभिक्खणं २ हत्थे धोवेद्द जाव आसयइत्रो सवा ॥ २५ ॥ तरणं सा काली अजा पासत्था पासत्थविहारिणी, ओसण्णा करने का कहने लगी. इस तरह डीलना निंदा, खिमना व गर्दा होने से काली आर्या को ऐसा अध्यत्रसाथ हुवा कि जब मैं गृहवास में थी तब मैं स्वतंत्र थी. जब से मैंने दीक्षा अंगीकार की है तब से मैं परवश हूं. अब कल प्रभात होते एक अलग उपाश्रय ग्रहण कर त्रिवरूं अर्थात् एकलविहारिनी बनूं यों विचार कर प्रभात होने पृथक् उपाश्रय में रहने लगी. व उम को कोई निवारनेवाला नहीं होने से स्वेच्छापना से वारंवार हाथ धोने लगीं यावत् जहां स्वाध्याय ध्यान व कायरा पहिले पानी से धोती थी । २६ ।। अब वह काली आर्या पार्श्वस्थ पार्श्वस्य विहारिनी
करती थी वहां भी भोसन, ओसन्न
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** पहिला वर्ग का पहिला अध्ययन 4*
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