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कष्टांगहासाधकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 18
जाया तहेव चिंत्ता, तहेव सागरदत्तं आपच्छति जाव गोवालियाणं अंतिथं पवतिया ॥ ७४ । तते मुकुमालिया अजा जाया. इरिया समिया जाव गुत्तबभचारिणी, बहूहिं चउत्थ छछुट्टम जाव विहरति ।। ७५ ॥ ततेगं सा मुकुनालिया अजा अन्नया कयाइ, जेगवा गोवालियाओ अजाआ तवा उवागच्छइ २ त्ता वंदति नममति, वंदित्ता. नमंसित्ता एवं वसास-इच्छामिणं अज्जा ! तुमेहि अब्भणुन्नाया समाणी चंपा नयरीए बाहिं सुभूमिभागस्स उज्ज परस अदूरसामत छटुं छटेणं आणिक्खिसेणं
तबोकम्मेणं सूरामिमुही आयावेमाणी विहारत्तए ॥ ततणं ताओ गोवालियाओ करने का कहना कहां से होवे. फर उसने केलि प्ररूपित धर्म कहा जिस से वह श्राविका हुई वगैरह सब पोटिला जसे कहना यावत् सागरदत्त को पुछ कर दीक्षा अंगीकार की ॥ ७४ ॥ अब मुकुपाले का आर्या हुई. वह ईर्या समिति यूक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी बनी. बहुत चतुर्थ छठ अष्ट भक्त यावत् करती हुई विचरने लगी. ॥ ७५ ॥ एकदा सुकुना लि का आर्या गोवालि का आर्या की पास गइ और उस को वंदना नमस्कार कर एसा बोली अहो आय ! अबकी अनुज्ञा हवे ते चा नगरी की बाहिर सभामभाग उद्यान की प.. छठ २ का निरंतर तप करके सूर्य की सन्मुख आतापना लेना चाहती
ट्रैपदी का सोरहवा अध्ययन
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