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4.8+ पटांड ज्ञाताधर्षकथाका प्रथम श्रुतस्कंध 44
जवि पव्वयामि ?, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह ॥ २१ ॥ ततेणं जियसत्तू जेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सुद्धिं अमच्चं सदावेति २ त्ता एवं वयासी-एवं खलु मए थेराणं जाव पध्वयामि तुमणं किं करोसि ॥ ततेणं सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तुरायं एवं बयासी-जाव के अण्णे आहारे जाव पव्वयामि ॥२२॥ त जइणं देवाणुपिया ! जाव पब्वाहि गच्छहणं देवाणुप्पिया ! जेट्टपुत्तं कुटुंबे ट्ठावहि, सीयं दुरुहिताणं मम अंतिए सीया जाब पाउब्भवह तएणं से सुबुद्धि जाव पाउभइ ॥ २३ ॥ ततेणं जियसत्तगया कोदंबियपरिसे महावेति कोड बय परिसे
सहावेचा, एवं वयासी-गच्छहणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! अदीणसत्तुस्स रायाभिसेयं कर आप की पास दीक्षा अंगीकार करूंगा, स्थविर बोले जैसे तुम को सुख होवे वैमा करो ॥ २१ ॥ तत्पश्चात् 'जितशन अपने गृह आया, और सुबुद्धि प्रगान को बुलाकर कहा कि मैं स्थविर की पास यावत् दीक्षित होऊंगा. तुम्हारा क्या विचार है ? तब सुबुद्ध धान बोला कि मुझ अन्य क्या आधार व अवलम्बन है, इस से मैं भी दीक्षा ग्रहण करूंगा ॥ २२ ॥ यादे तुम्हारी दीक्षा लेने की इच्छा हो तो अपने गृह ज ओ. और ज्येष्ठ पुत्र को कुटम्प में स्थाप करें शिषिका पर बैठकर मेरी पास आवो ॥ २३ ॥
जितशत्रु राजाने कौटुब्धि पुरुषों को चोलाकर ऐसा कहा कि ओ देवानु प्रेय : तुर अर्द ने शत्रु
मुबुद्ध प्रधान का बारहवा अध्ययन ११
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