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अर्थ
48 पदकपालमवारी मुनि श्री भगोलक ऋषिनी 8
सिक्स्थावियं तपमेव ममआयारगोयर-विणय-रण-करणे- आया- माया- उचियं धम्म माइक्विव ॥ १२९ ॥ एवं समणे भगवं महावीरे मेहकुमारं सयक्षेत्र पत्राद् समेत्र मुंडाइ, सयमेत्र-आयार जाव धम्ममाहखइ, एवं देवाणुप्पिया! गतब्धं, चिट्टि पभ्यं. जिसीयन्वं, तुहियन्त्र, भुजियत्वं भासियन्त्रं, एवं उट्ठाए उट्ठाय पाणेहिं भूएहिं जी सतह जमे संजमियां, अहिंसवणं अट्ठे णो पद्माएयस्वं ॥ १३० ॥ सए से मेहे कुमार मण भगवओ महावीर अतिए इमं श्यारूयं धम्मियं उपमं प्रिंसम्म सम्बडिबबइ, समाजा सहा गाइ, सहा बिट्ट, जव उट्ठाएउट्ठाय पाणेहिं भूयहिं जीहिं माचार, गोवर, विनय, चरण, करण यात्रा, आहार आदि की मात्र तप कर्म करने को मैं चाहता हूंब हे {देशनुप्रिया ! आपस्वयमेव मुझे कहो ? ।।१२२|| तब श्रमण भगवंत महावीरने स्वयंमंत्र उनको प्रजित कीया, मुंडिस कीया यावत् उत्तम धर्म कहा. अहो देवाप्रिय ! इस बकार ईव समिती पूर्वक चलना, बस्मा पूर्वक खडे रहना, प्रस्ना ब्रेडना, यस्नामे शयन करना, यदनासे आहार करना, यस्नारे भाषा समिति युक्त बोलना, यो सदेव ण, भूत, बीच, मस्की यस्ता करना, उक्त संगमके कर्मों में किचिन्मान प्रमाद करना नहीं ॥ २२० ॥मेघकुमारने श्रमण महावीर हामी को पास ऐसा धार्मिक उपदेश सुनकर सम्यक प्रकार से अंगीकार कीया. बाह्य में से जलने बैठने कान खडे रहने लये व माण, भूत, मीच का सं
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राजवाहर लाला
सुखदेवसहायत्री ज्वालाप्रसादजी ●
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