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सूत्र
अर्थ
43 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
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बहू है वग्गूहि समासामेति समासात्ता पडेविमज्जति ॥ ६० ॥ तते से सागरदत्ते अन्नयाकयाई उपि आगासतलास सुहणिसन्न रायमगं अलोएमा २ चिट्ठति ॥ ६१ ॥ ततेणं से सागरदत्ते एगं महं दुमग पुरिस पास इ दांड खंडबसणं खंडमल्लग खंडघडग हत्थगयं मच्छिया सहस्से हि जाव अणिज्जमानमग्गं ॥ ६२ ॥ ततेणं से सागरदचे सत्थवाहेक दुबिष पुरिसं सदावेति सावेत्ता एवं वयासी- तुम्भेणं देवाणुप्पिया ! एवं दुमगपुरिसं साइमं पडिलोभेह गिहं अणुपत्रिसह २ ता खंडमलगं
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कि जो तझे इष्ट यावत् मनाम होवे. यों कहकर बहुत इष्टकरी वचनोंसे आश्वासन देकर विसर्जितकी ॥६०॥ एकदा सागरदत्त सार्थवाह अपने प्रासाद की चांदनी में बैठे हुवे राजमार्ग का अवलोकन कर रहे थे. ॥ ६१॥ व सागरदत्त मार्थवाहने एक बडा दरिद्री को देखा. उसने फटे हुये वस्त्र पहने थे, तुटा हुआ सरावल, पानीभरने का मिट्टी का घड! हाथ में लिया था. अनेक मक्षिकाओं उस की चारों तरफ गण गण कर रही थी. इस तरह वह इधर उधर परिभ्रमण कर रहा था ॥ ६२ ॥ सागरदत्त कौटुम्बिक पुरुषों को बोलाये और ऐसा कहा कि अहो देवानुदय ! तुम इस दरिद्री पुरुष को विपुल अशनादिक
विउलेणं असणं पाणं खाइमं खंड घडगं च से एगंते एडेह
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*शिवराहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी ●
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