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षष्टांग ज्ञाताधर्म था का प्रथम श्रुतम्वन्ध:4
देवरुप्त सा. दिव्वा देविड्डी ३ कहिंगया कहिं अणुप्पचिट्ठा ! गोयमा! सरीरं गया सरीरं अणुप्पविट्ठा कूडागार दिटुंते ददरेणं भंत देवणं सादीबादविडा किण्णालद्धा, जाव अभिसमन्नागया ? ॥ ४ ॥ एवं खलु गोयमा ! इहेव जंबद्दीवेदीवे भारहेवासे रायगिहे गुलसिलए चेइए सेणिएराया ॥ ५ ॥ तत्यणं रायगिहे नयरे ण णामं मअियारसेट्ठी परिवसइ, अड दित्ते जाव अपरिभए ॥६॥ तणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! रायगिहे णयरे जेणेव गुण सिलए चइए तेणेव समोमढ, परिसानिग्गया, सणिएवि राया णिग्गओ ॥ ७ ॥ तएणं से गंदमाणियार सेट्ठी इमीसे कहाए लट्ठ समाणेष्हाए
पायविहार चारेणं जाव पज्जुवासति ॥८॥ गंदे धम्मं साचा, समणावासए जाए ॥८॥ देव ऋद्ध कैसे प्राप्त हुई ! ॥ ४ ॥ भगान्त महावीर स्वामीने उत्तर दिया कि अहो गौतम ! इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में राजगृह नगर, गुणशील उद्यान व अँणक राजा है ॥ ५॥ इस राजगृह नगर में नंद नामका माणभार रहना था. वह ऋदन, दीप्तिांत यावत् अपरिभूत था ॥ ६॥ अहो गौतम ! उम काल उस समय में आया, परिषदा वंदन करने को नीकली और श्रणिक राजा भी नोकरा.॥७॥ नंद मणिभारने भी एसी बात सुनकर स्नान किया यवत् पांच से चलता हुवा. यावत् पर्युपामना करने में लगा ॥ ८ ॥ ६ मणि आर धर्म सुनकर आपण पासक हुना ॥ ८ ॥ तत्पश्च न् मैं राजगृह नगर में से।
नंदमणियार श्रष्ठा का तेरहवा अध्ययन 42
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