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सबग संदरंगे मंसोवचिए बाल कीलावण कुसलेयाविहोत्थ ॥ ७ ॥ तएणं धण्णे सत्यवाहे रायागहे नगरे वहुणं णगरणियमसेटि सत्थवाहाणं अहारमण्हयसेणि प्पलेणीणं बहुसु कज्जेसुय कडुबमुय जाव चवखुएयाविहोत्था णियगस्स वियणं बहुसु कुंडुबेसुय बहुमु गुज्झनुय जाव चक्खभतेयावि ॥ ८ ॥ तत्थणं रायगिहेनगरे बहिया विजए नाम तकर होत्था, पाव चंडाल रूवे भीमतर रुद्दकम्मे आरुसियदित्ता, रत्तनयणे, खर फरुसमहल्लु विगय बीभत्थ दाढिए असपडिय उद्रे
अंनुवादक-पालवह्मचारी मुनि श्री अमोलक अपिजी
पंथक नामका दासका पुत्र अथवा दासपुत्र समान था. वह सांग संदर व मांस रधिर से रुष्ट पुष्ट
और बालकों को क्रीडा कराने में कुशल था. ॥७॥ वह घना सावह राजगृह बार बहत नगर व निगम के श्रेष्ट व मार्थवाहों में व कुंभकार से लोहका पर्यंत अठारह प्रकार कोणे परत कर्मों के लिये, बहत लोकों के कुटुंध के लिये व बहुन रहस्य बातों के लिये बसू समान था. और अपने कुटुम्ब में भी यह रहस्य बातों में यावत् चक्षभून श. ॥८॥ उस राजगृह नगर की बाहिर विजय नामक चार रहता था. वह पापी, चांड ल, रुद्र, भयंकर, रुद्र रुद्रकर्म करने वाला, कुद्ध मनुष्य जैसे रक्त नेत्रों वाला, था. उस को अतिकठोर भयानक विखरे हवे बालों की दाढी थी, उस के दांत परस्पर नहीं मीलते थे, उस से उसके दोनों ओष्ट भी अलग रहते थे, उसको वायु से विखरे हुवे सिरके लम्बे बाल थे, भ्रमरों की
प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी .
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