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सत्र
३०२
4- अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी -
• अवदारेणं णिच्छु.भाविया समाणा जेणेव सग्गउ २जणवए जेणेव सयाई २णगराई जेणेव
सया२रायाणो तेणेव उवागच्छइ २ ता करयल एवं वयासी-एवं खलु सामी ! अम्हे जियसत्तू पामोक्खाणं छह राइणं दूया जमगं समगं चेव जेणेव मिहिला जाव अवदारेणं णिच्छुभावेइ, तं णदेवणं सामी ! कुंभराया मल्लीविदह रायवरकन्नगासाणं २ राइण एयम₹णियंति ॥ १११॥ ततेणं ते जियसत्तू पामोक्त्रा छप्पिरायाणी तेसिं दूयाणं अंतिए एयमटुं सोचा निसम्म आमुरत्ता ४ अन्नमन्नस्स दूयं
संपेसणं करेति २त्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं छण्हं राई दया द्वारों से निकाल दियेबाद अपने देश में अपनी २ नगरी को अपने २ राजाकी पास आये और हाथ जो डकर ऐसा बोले कि नितशत्रु राजा के दूत प्रमुख हम छ ही दून साथ मिलकर मिथिला नगरी गये थे. वहां हम को अपमान कर छाटे द्वार से बाहिर निकाल दिये और कहा कि वह कुंघराजा मल्ल विदेश गना कन्या किसी को भी देंगा नहीं. एका अप। २ राजा की पास मव नोंने विवेदन किया ॥१.११॥ अपने २ दूत की पास से एना सुनकर जितशत्रु प्रमुख छ ही राजाओं आसुरक्त यावत् गिसमिस.यपान हुवे. और परस्पर दूर भेन कर छ ही राजाभों को कहलाया कि अहो देवानु प्रय ! अपने
० प्रकाशक राजावक्षदर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी.
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