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4: षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध
२ त्ता
परिव्वइया अंते जनियहा से दुर्ग सहावेइ २त्ता जाव पहारेत्थ गमगाए ॥ ६ ॥ १०९ ॥ तएणं जियसत्तु पामोक्खाणं छण्हं राइणंदूया जेगेव मिहिलाए नपरी तेगेव पहारत्थ गमगाए ॥ तणं छप्पिययगा जंगेव मिहिलाणयरी तेणेव उभगच्छ महिलाए अंगुजातिपत्तय २ खंधावर निवमं करेति मिहिल रायहाणि अणुपत्रि संति जेणेव कुंभराया तेणेत्र उत्रागच्छइ २ त्ता पत्तेय २ करियल सांग २ राई त्रयणाति निवेदेति ॥ ततणं से कुमराया ते दूषाणं अतीए एयमट्ठे सोच्चा अहुरुत्ते जाव तिवलियं भिउडिं पिडाले साहहु एवं व्यासी— नंदमिणं अह तुभं मालविदेह बरका तिहु ॥ ११० ॥ तत्थणं छप्पिए दुई असक्कारिय सम्माणिय
उस परिव्राजिका के पास से ऐसा सुन कर पूर्व भव का स्लेट उत्पन्न होने के दूत व लाया वह मिथिला नगरी में जाने को निकाला यह छठा दून ॥ १०० ॥ इस मकार जितशत्रु आदि छ राजा के दूरों मिथिला नगरी जाने को शकल वे वहां जाकर वाहिर अग्र उद्यान में पृथकर अपना २ कटक रखा. मिथिला राज्यधानी में प्रवेश कर कुंप बाजा को पास गये और प्रत्येकने हाथ जोडकर अपने २ राजा का कथन कह सुनाया. दूतों की पस ऐना सनकर वह कुंप राजा आसुरक्त हुवा यावत् कपाल में भृकुटि चढाकर एमा बोला मैं तुम की किसी को भी मली विदेह राजा कन्या नहीं दूंगा ॥ ११० ॥ छ ही दूरों सत्कार सन्मान नहीं मिलने से वहां से छंद
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** श्रीमल्लीनाथजी का आठवा अध्ययन 4+
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