________________
-
पष्टांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध
रक्खियरस मणं आहिणा आभोएति २ ता एवं क्यासी-निच्चंपियणं अहं जिण पालियस्स अणिटुा, णिचं मम निणपालिए अणिटे, णिच पियणं अहं जिणरक्खियस्स . इट्ठा णिचंपियणं मम जिणरक्खिए इटे५,जतिणं मम जिणपालिय रोयमाणि कंदमाणि सोयमाणि तिप्पमाणि, विलवमाणी जाव गोवयक्खति,किण्णं तुमपि जिणरक्खिया मम रोयमाणि, जाव णावयवति ॥ ३८ ॥ गाथा--ततंणं सा रयगदीवस्त देवः। उहिणा जिणरक्खियरस मगं णाऊण ॥ वधणिमित्तं उबारं मागंदियदारगाणं दोण्हंपि
॥१॥ दोसकलिया सललिय, णाणाविह चुण्णवाससमीसियं ॥ दिव्यंघाणमणणिव्वुइकर प्रिय थी और वह भी मझे प्रिप था, मुझे रोती हुई आक्रंद करती हुई, शोक करती हुई व आंशु वर्षाती हुई को बिनपाल न देखता था परंतु तुम मिनरम भी ऐमा करते हो ॥३८॥ अब यह रत्नदीपा देवी जिनरक्ष का मन जानकर उस के दोनों याकदिय पुत्रों के वध के लिये ऊपर से प्रपंच करती हुई द्वेष से भरी दुई क्रीडा सहित, विविध प्रकार के, दीव्य, प्राणको सुख करे ऐसे गंग बूर्ग की वर्षा की. चारों दिशि में, सुविन पुरुषों की वर्षा को, विविध प्रकार की मणिरत्तों की पटिकाओं घमघमाती हुई, नेपुर कटि । मेखला आदि भूषणों के प्रकाश से और शब्द से दिशि विदिशि को पूरित करती. हुई, पाप में प्रवृत्ति का करमेनाले वचत चलनी हुई, प्रेय पूकि नीच शो पोरने छमी. रे मूल! रे घसुरु ! रे गोल! बहो मामा
• जिनपक्ष जिनपाल का नववा अध्ययन 4+
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org