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सेलएणं जक्खएण सरि लान समर मझ मझेणं वांतीवयेति ॥ ३६॥ तत सा रयण दीव देश्या ते मागंदियधारए जाहे नो संचाएति बहहिं पडिलोहिय उवसग्गेहिय चालित्तएवा क्खोभित्तएका विपरिणामित्तएवा, ताई महुरेहिं सिंगारेहिय कलुणहिय उबसहिय उपसग्गे उपयत्तायाधि होत्या. ॥ हंभो मागदिय दारगा । जहणं तम्भौहें देवाणुपिया! मए सरि हसियाणिय, रसिआणिय,ललियाणिय, कीलियाणिय, हिंडियाणिय, मोहियाणिय, ताहणं तुम्भ संयति अगाणेमाणा ममं विप्पजहाय सेलएण
सद्धि लबसमुई मज्झं मजाणं वीतीवयह ॥ ३७॥ ततेग सा रयणदीव देवया जिण EAR की साथ लयच समुद्र की मध्य में जा ॥३५॥ वह रस्न्दीपा देवी सन 'पादिय पुत्रों
कोमु प्रतिलोम उपपर्गमे चलायमान व शोषित करने में समर्थ हुई तब मधुर करुणा भनक उपपर्ग से करने लगी. बहो माकंदिय पुत्रो! सुपने पेरी साय हास्य, प्रत. लालित्य, कडा, साय करने का, पयोहकारी पवनों किये , अब इन सब को नहीं गिनते दुरे मुझे छोड कर शेलक पक्ष की
साय सण समुद्र की बीच में जाते हो. ॥ ३७॥ विनरक्षका मन अवविज्ञान से मानकर, वा रत्नदीपा 1 देवी ने सगी कि जिमपाट को अनि थी और वह भी मुह मनिह पा. परंतु में जिनरल को
प्रकाशक-जावयाला सुखदेव सहायणी ज्यालामवादमी.
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