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तुम्भं जाणह ममं विप्पजहाय सेलरणं ज़बग्ने सद्धि लवणसमुदं मज्झं मझेणं वीतीवयमाणा तं एव मविगए, जतिणं तुम्भे ममं अबक्खयह तो भे अस्थिय जीवियं अहण्णं. जो वयक्खयहनो मे इमेणं नलुप्पल गवल जावएडेमि ॥ ३५ ॥
मएणं तेमागंदिय दारया रयणदीव देवयाए अंतिए', एगमटुं मोचा णिसम्म, - अभीया, अतस्था अणुविग्गा अखुभिया असंभंता रयणदीय देवयाए एयमटुंगो
आढाति नो परिणायंतिणावयइक्खंति, अणाढायमाणो अपरिजाणमाणा अणवयक्खमाणा खुत्रों को लवण ममुद्र से जाने हुए देख कर भास रक्त हुइ और असिखा हाथ में लेकर गवत् मात आठ तालवृक्ष प्रमाण ऊंचे उहकर उत्कृष्ट दैयि देवगति से माकंदिय पुत्रो की पास आइ और एस बोली अहो मादिय पुत्रो आमाथित जो मृत्यु उसकी प्रार्थना करने वाले ! तुम क्या जानते हो.कि मुझ छेड कर शळग यक्षकी साथ लषण समुद्र में जा रहे हो. तुप जानते हुए मेरी सन्मुख देखोगे ता भी जीवित रहांगे, और याद नहीं देखोगे तो मेरे इस नीलोत्पल जैसे यावत् काटकर एकांत में डाल दूंगी
॥ ३५ ॥ अब वे माकंदिय पुत्र रत्नदीपा देवी की पास एना सुनकर भयभीत रहित हुए त्रास रहित मदए द्वेग रहित अक्षध प अभ्रांत रहे, रत्न द्रोपा देने के उक्त वचनों का आदर किया नहीं और | अच्छे जाने नहीं. इस तरह नहीं आदर करतं य. अच्छा नहीं नाग तें व इस को नहीं देखते भग
ष्टाङ्ग हाताधर्षकथा का प्रथम श्रनस्कन्ध
जिनरक्ष जिनबा का नया अध्ययन
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