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- अनुवादक-बाल ब्रह्मचारीमुनी श्री अमोलक ऋपिजी
गंधा सिकटु,तेसुउक्किडेसु सह फरिस रस रूब गंधेसु अमुच्छिया४तेसि उक्किट्ठाणं सह .. जाच गंधाणं दुरंदरेणं अबकमंति, तेणं तत्थ पउर गोयरा पउर तण पाणिया णिब्भया णिरुविग्मा सुहंसुहेणं विहरंति ॥ १७ ॥ एबामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथोवा णिग्गंथीवा सद्द जाव फरिसा जोसज्जति ४ सेणं इहलोए चेव बहूणं समणाणं बहुणं समणीणं बहुणं सावगाणं बहुणं सावियाणं अच्चणिजे जाव वीतीवतिरसति ॥ १८ ॥ तत्थणं अत्थेगतिया आसा जेणेव ते उक्किट्ठा सदाफरिसरसरूवगंधा तेणेव उवागच्छति २ ता तेसु उकिट्ठसु
सद्द . फरेसरसरूवगंधसु समुच्छिया जाव अझोववण्णा आसेविओ यह अपूर्व , पहिले यहां नहीं थे अब कहां से आये गो भयका जानकर उस में मूच्छित हुवे विना ही उन को दूर से ही छोडकर जहां प्रचूर घाम चारा वगैरह था वहां भाकर भय व उद्वेग रहित मुख पूर्वक विचरने लगे ॥ १७ ॥ अहो आयुष्मन् श्रपणों ! वैसे ही जो कोई साधु माध्वी शब्द, स्पर्श, रम व रूपमें र मूर्छित होंगे नहीं वे इस लोक में बहुन माधु, मावी, श्रावक व श्राविका में अर्चनीय व पूज्यनीय होंगे.
यावत् मंसार उत्तीर्ण करेंगे ॥१८॥ कितनेक अश्वों जहां उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप व गंध थ 'वयं गये. उन में मछित यावत् तन्मय बनकर उन का आस्वादन करने लगे. इस तरह उत्कृष्ट शब्द,।
मायक-राजाबहादुर काला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी.
अर्थ
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