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सूत्र
अर्थ
83 पठन ज्ञानावर्धकथा का मथप श्रुतकंच 436
असुन आदि अमण अकंत बग्गूहिय तज्जयंत पसंति ॥ ६० ॥ तं तालपिसाय रूवं एवं एजमाणं पासंति२त्ता भीया, संजया भया अण्णमण्णस्म कार्य समतुरंगमाणा २ बहु इंदाणय, खंदाणय, रुद्दा, मित्रा, बेसमण, मागाणं, भूयाणय, जक्खाण • अज कोड केरियाणय, बहुणिं उबाइय सयाइणि उत्रातियमाणा चिति ॥ ६१ ॥ एवं म • अरहनए समणोबासए त दिल्वं पिसायरूवं 'एज्जमाणं पासति २ ता अभीए अमत्थे अचलिए असमंते अणाउले अणुठित्रग्गे अभिण्णमहराग, नयणवणे आदीण त्रिमण माणसे पायं बाणस्लए एगदेसंसि, वत्थं तणं भूमि पमज्जइ २त्ता हट्टाइय ता
अशुभ, अप्रिय, अक्रांत वचनों में सर्जन करने वाला एक घोरे पिशाच को देखा. ॥ ६० ॥ ऐमा ताल वृक्ष | समान विशाच को आता हुआ! देखकर वे डरे, भयभीत हुवे, परस्पर एक दूसर को नीपटने लगे, और बहुत इन्द्र. स्कंध, रूद्र, शिव, वैश्रमण, नाग. भून, पक्ष, और मशरूप दुर्गा, कोड, क्रिया- वही दुर्गा महिषडा वगैरह सब की मनता पूजा करने लगे. ॥ ६१ ॥ तब वह अरक श्रमणोपासक उस पिशाच की आतांहुचा देखकर डरा नहीं, त्रास नहीं पाया, चलित छूता नहीं संभ्रात नहीं हुआ। आकुल व्याकुल नहीं। हुआ नहीं बन, मुल्वकेव मंत्रों में किसी प्रकार से विकास लायों नहीं, मन में भी दोन बॅना नहीं परंतु जहाज के एक विभाग में जाकर वस्त्र से भूमि की प्रमार्ज किया. और हांथ जोडकर
कर आसन
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श्रमल्लीनाथजी का अठवा अध्ययन
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