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મેથ
+३+ षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कंध 4
णिन्सिया अणत्ता ? ॥ ततेणं से सुवन्नगारा संखं कासीरायं एवं वयासी एवं खलु सामी ! कुंभयस्तरण्णोधूया पभत्रावतीए देवीए अत्तया मल्लीए विदहरायवर कण्णए कुंडलस्स जुयलस्स संघ । विसंघडीए ततेनं से कुंभएराया सुवण्णगारसेणि सहावेति २त्ता जाव णिचिसिया • आत्ता || तरणं कारणणं सामी ! अम्हे कुंभएणं णिन्त्रिसया आणेत्त ॥ ८३ ॥ ततेणं से संखया सुवणारे एवं त्रयासी केरिसियाणं देवाणुपिया ! कुंभयस्तरण्णो धूया पभावती देवीए अत्तयामीविदेहवरराजकन्ना ? ॥ ततेनं ते सुवण्णगारा संखरायं एवं बयासी नो खलु सामी ! अन्नाकाइ तारिसिया देवकन्नावा गंधव्यकन्नावा जाव आत्मजा मल्ली नाम की त्रिदेव राजवरकन्या है उन के कुडंल की संधी तूट जानेसे हमको बोलाकर संधी मीलाने के लिये कहा हम उस को बनास के नहीं, इस से क्रुद्वतनकर हम को देश निकाल किये. अहो स्वामिन्! कुंभ राजाने हम को देश नीकाल किया है इस का यह कारन है. ॥ ८३ ॥ शंख राजा उनसुवर्णकारों को पुछा कि अहो देवानुप्रिय ! कुतं राजा की पुत्री, प्रभावती देवी को आत्मजा मल्ली विदेह राजाकी कन्या कैभी वे सुवर्णकारों शेख राजा को ऐसे बोले अहाँ देवानुप्रिया जैसे कोई देवकन्या अथ गंधा भी नहीं है बैरी कहन्या है. कुंडल के प्रसंग से पूर्व अन्नका उद्धा होने से दूतकों
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48* श्री मल्लीनाथजी का आठवा अध्ययन
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