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अष्टांग नाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतम्
कहा समुखावे समुप्पजित्था सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! कलं जाव अलंते विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता,तं विपुलं भसणं ४ धूव पुष्फगंध वत्थं गहाय, देवदत्ताय गणियाए सद्धिं सुभामि भागस्त उज्जाणस्स उजाणप्तिरिं पञ्चणुढभवमाणाणं विहरित्तए त्तिकटु ॥ अन्नमन्नस्स एयमढें पडिसुणेति २ ता कल्लं पाउब्भूए जाव दुबियपुरिसे सहावेइ २ ता एवं वयासो' गच्छहणं देवाणप्पिया ! विपुलं असणं ४ उवक्खडेह २ ता तं विउलं असणं ४ धूव पुप्फगहाय जेणेव सुभूमिभागे
उजाणे जिणेव नंदा पुक्खगिण नेणा मेव उवागच्छइ २ त्ता गंदा पुक्खरिणीते अदूर ऐसा वार्तालाप हुवा. अहो देवानुप्रिय ! कल प्रभात में विपुल अशन, पान, खादिम व स्वादिम बनाकर और विफल पुष्प, गंध, वस्त्र वगैरह लेकर देवदत्ता गणिका की साथ सुभूमि उद्यान में उद्यान की शोभा का अपन अनुभव करे. दोनोंने इस बात का स्वीकार किया. और दूसरे दिन प्रभात होते कुटुम्भिक पुरुष को बोलाये और कहा कि अहो देवानुप्रिय! तुम विपुल अशनादि बनाकर और उस की साथ फल धू। पुष्प वस्त्र लेकर सभूमि भाग उद्यान में नंदा पुष्करणी की पास जाओ. वहां उस पुष्करणी की नाम वस्त्रे से सजाया हुवा एक मंदम तैयार करो. वहां जमीन व करके, पानि का सिंघन करके
- मयूरी के अंडे का तीसरा अध्ययन Men
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