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शाखाचर्यकथा का प्रथम श्रुतम्बन्धnth
॥ ४ ॥ सत्ताण दुहत्ताणं धम्मसरणं जिणंदपण्णत्तं ॥ मागंदरूवीणब्याण साइणं तहयदेसह ॥५॥ जहतेसि तरियम्यो, रुद्दसमुदो तहेव ससारो॥ जहं तेसिं सगिहगमणं जिवाणगमो तहा इस्थ ॥ ६ ॥ जर सलगस्त पिटुं तेर्सि भन्वाण तहा इहं, परणं जह देवीवामोहो, तऊचुआ पाविओणिहणं ॥७॥ तह अविरईएणडिओ, वरणपओ दुक्खसावया, इण्णो जिवडा अपारसंसार सायरे दारूणसरूवे ॥ ८ ॥ जह देवीए अक्खाहो पत्तो सट्ठाण जीचिसुहाइ ।। तह चरणठिआ साहु अक्खोहो जाइ णियाणं
॥ ९ ॥णवमं भज्झयणं सम्म ॥९॥ नीत्रों को सुख है. दुःख से पीरित नीबों को भानंद ५ निर्वाण सापन बला जिनेन्द्र प्ररूपित धर्म का परण है. जैसे रुद्र समुद्र मीरने का का वैसे ही यहां मंमार का जानना. जैसे या अपनेवरमया वैसे जीवों मोक्ष में जाते हैं जैसे शलग की पीठ पर भारू हो मे ही भव्य नीमचाधि धारन करते
म रस्तदीपा देवी पकाने से चाखत दवा मे ही मोह मे चलाने संचाळेत होता.भीर वहां मेवर पापी माया. मे ही चारित्र सहण या अविरतिमीब दःख को मासकर सापद से परिपूर्ण दारूप स्वरूप वाला भगाधर्ममार सागर में पड़ता है. मेसे पस देवीको नहीं दखेता पामिनप.ल सुख पूर्वक अपने स्थान पांचगवा से ही चारित्र के मुख में संस्थित साधु निर्वाण प्राप्त करता है. वह नया अध्ययन संपूर्ण दुधा ॥२॥
वन+मिनरक्ष बिनपासका वा बबबन
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