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सूत्र
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अनुवादक-पालवमचारी मुनि श्री अपोलकपिजी 10
गारे पुंडरीयस्सएयमटुंगो ढाति जाव तुसीए संचिटुंति ॥ ततेणं से कंडरीए पुंडरीए... दोचंपि तच्चपि एवं वुत्ते समाणे अकामए अवसबसे लजाए गारवेणय पुंडरीयर आपुच्छति २त्ता थेरेहिंसहिं. बाहिया जणवय विहारं विहरति ॥ १७ ॥ ततेणं से कंडरीए अनगारे थेरेहिं सरि किंचिकालं उगंउग्गेणं विहरति, ततोपच्छा समणक्षण परितते समणतण णिविणे समणसणं गिभच्छिए समणगुण मुक्कजोगी थेराणं अंतियातो सणियं पञ्चोसकाइ २ ता जेणेव पोंडरीगिणी णयरी जेणेव पुंडरीयस्स भवणं तेणेव उवागच्छइ २ सा असोगणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढवि
सिलाए पट्टगसि णिसीयति २चा ओहयमणसंकप्पे जाव झियायमाणे संचिट्ठति किया नही यावत् मौन रहे. जर पुंडराने कुंडरीक को दो तीन बार ऐसा कहा तब अनिच्छासे परशेयपना व लज्जा से पुंडरीक को पुछकर स्थविकी माय बाहिर देशमें विचरने लगे. ॥१७॥ कंडरीक अनगारने उन स्थविरॉकी किंचित् कालतक कठिन क्रिया संयमका पालन किया. तत्पश्चात् साधु सा पनासे उद्विग्नबने विषवाद व निर्भत्सना पाकर साधुओं के गनोंसे रहित बनकर उन स्थविरोंकी पाससे शन नीकल कर पुंडरीकिनी नगरी आया. यहां पुंडरीक के भवन पीछे अशोक वाटिका में अशोक
धबहादुर मला एखदेखमाजी चालाप्रसादी
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