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. पटांड हाताधया का प्रथम श्रुतस्कन्ध 42
+ पुंडरिक कंडरिका का
लहट्टे समाणे हाए अंतें उरए परियालं सद्धिः संपरिवुडे जेणेव कंडरीए. अणगारे तेणेक उबागच्छइ २ त्ता कंडरीयं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहि करेइर चा वदति णमंसति घदेत्ता गमंसित्ता एवं व्यासी-धन्नेसिणं तुम देवाणुप्पिया ! कयत्थे कयपुणे कयलक्खणे सुलटेणं देवाणुप्पिया ! तव माणुस्सए जम्मजीविषफले जेणं तुम रजंच जीव अंतेउरंच विच्छडेड २ ता बिम्गोवइत्ता जाव पव्यइत्तए; अहणं अहण्णे अपुन्ने अकय पुण्णे रजेय जाव अंतउरेय माणुस्सएमय कामभोगेसु मुग्छिए जाव अज्झविवन्ने, नो. संचाएमिः जाव पवातित्तए ॥ तं धन्नेसिणं तुमे देवाणुप्पिया ! जाव जीवियफले ॥ १६ ॥ ततेणं से कंडरीए अणक अनगार की पास आये और उन को तीनवार आदान प्रदक्षिणा करके पंदना नमस्कार किया. और बोला अहो देवानुप्रिय ! तुम को धन्य है, तुम कृतार्थ हो, तुम पुण्यवंत हो, तुम शुभ लक्षणवाले हो, तुम्हारा जन्म सफल है. क्यों कि तुम राज्य व अंत:पुर को छोडकर यावत् दीक्षित बने हुवे हो..
अघन्य अपुण्य हूं. क्यों कि राज्य यावत् अंत:पुर व मनुष्य के काप भोगों में मूईछत यावत् तन्मय A बनकर दीक्षा लन को समर्थ नहीं हुआ है. इस से हो देवापुत्रिय ! तुम को धन्य है, यावत् नुम्हारा जन्म सफल है. ॥ १३ ॥ कंडरीक अनगारने पुंडरीक के वचन का आदर है
समा अध्ययन
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