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अनुवादक-माळमचारी मुनि श्री प्रमोडक ऋषिनी -
एवं खलु अम्मयातो मएपासरस अम्हातो अंतिए धम्मेणिसंते सेवियधम्मे इन्छिए पडिग्छिए अभिरुइए, ततेणं अहं अम्मयाओ संसार भउन्विग्गा भीया जम्मण मरणाणं इच्छामिणं तुम्भेहिं अभणुन्नाया समाणी पासस्त अरहतो अंतिए मुझे भवित्ता अगारातो मणगारियं पचतिसए ॥ अहासुहं देवाणुप्पिए ! मा पडिबर्ष करेइ ॥१६॥ ततेणं से काले गाहावई विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावति २त्ता मित्तणाइणियग सयणसबंधि परियणं आमंतेतिरत्ता ततो पच्छाहाए जाव विपुले
पुष्पवत्थगंध मलालंकारणं सकारत्ता समाणेत्ता तस्सेव मित्तणाति णियम सयण मात पिता ! मैंने पुरुषादानीय श्री पार्श्वनाथ स्वामी की पास से धर्म सुना है. वहीं धर्म मुझे इच्छिा है यावत् उसपर ही मेरी अभिरूचि है.अहो पात पिता ! मैं संसार भय से उदिन बनी हुई जन्म जरा परण से भय भीत बनी हूं. मैं आपकी अनुज्ञा से श्री पुरुषादानीय पार्श्वनाथ स्वामी को पाम मुंडित बनकर दीक्षित होना चाहती हूं. मात पिताने कहा अहो देवानुप्रिये ! जैसे मुख होवे वैसे करो. इम में विलम्ब मत करो. ॥१६॥तष:काल गाव पतिने विपुल अशन पान खादिम व स्वादिम बनाये. मित्र ज्ञाति सहन संबंधि आदि परिजनको आमंत्रण देकर तत्पश्चात मान करके यावत् विपुल पुष्प बस गंध माला व अलंकार उन सघ का सत्कार सम्मान किया. उन मित्र शातिं स्वजन संबंधि जनो की सन्मुख कालि कुमा
प्रकाशक-राजाकह दुर लाला मुखदेवसहायनीज्वालाम साहनी
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