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मनुवारकालबमचारी भनि श्री अपायक रजी
'माझे मसणं वीत्रयमाणाणं सा रणदीव देवया पाया पडा रुदा सुहा साह सिया 'बद्दहि खरएहिय मउएहिंय अणुलोमेदिय पडिलोमेहिय सिंगोरेहिय ।। कलुगेहिय उवसग्गेहिय उवसग्गं करहिति ॥ जतिणं तुम्भं देवाणुप्पिया ! रयणदीय देवयाए एषमटुं आढाइवा परियाणहवा अध्यक्लहवा तो मेहं पुष्टातो बिहुणामि ॥ अहणं तुम्भे रयणदीव देवयाए एयमटुं नो माढाह नो परिजाणह नो अवयक्खह तो भे रयणदीव देवयाए हस्थातो साहन्छि नित्यारेमि ॥ ततेणं मागंदियदरगा सेलयं जक्खं एवं क्याम्ग-जणं देणुपिया ! इसति तरसणं ।
उवायवयण निहसे चिढिरसामो ॥ ३३ ॥ ततेणं से संलए जक्खे उत्तरपुर स्विमसि ।। है कठोर, पृ. अनुलोम. प्रतिरोग, श्रृंगार, करूण जनक उपसर्ग में असमर्म करेगी. अहो देवानुमेय !
यदि तुप उन के वचनों का आदर करागे अथवा मा जानोगे तो में री पीउपर से दूर राल दूंगा.
और तम उन के वचन को अwai जानेगे या बादर न करोगे तो में तुप को दीपा देवी के Fहाथ से मुक्त करूंगा. तब मानिय पुत्रों कहने लमे कि अहो देवानुप्रिय ! जैसे तुम कहोगे बेमे की
करते हुब हम रहेंगे ॥ ३३ ॥ तत्र पर लग याने शिानन में जाकर य समुद्रात करके संवाद |
मनमायादुरकाका-मुबश्वमहामनीबालामममा.
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