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________________ ४४. मनुवारकालबमचारी भनि श्री अपायक रजी 'माझे मसणं वीत्रयमाणाणं सा रणदीव देवया पाया पडा रुदा सुहा साह सिया 'बद्दहि खरएहिय मउएहिंय अणुलोमेदिय पडिलोमेहिय सिंगोरेहिय ।। कलुगेहिय उवसग्गेहिय उवसग्गं करहिति ॥ जतिणं तुम्भं देवाणुप्पिया ! रयणदीय देवयाए एषमटुं आढाइवा परियाणहवा अध्यक्लहवा तो मेहं पुष्टातो बिहुणामि ॥ अहणं तुम्भे रयणदीव देवयाए एयमटुं नो माढाह नो परिजाणह नो अवयक्खह तो भे रयणदीव देवयाए हस्थातो साहन्छि नित्यारेमि ॥ ततेणं मागंदियदरगा सेलयं जक्खं एवं क्याम्ग-जणं देणुपिया ! इसति तरसणं । उवायवयण निहसे चिढिरसामो ॥ ३३ ॥ ततेणं से संलए जक्खे उत्तरपुर स्विमसि ।। है कठोर, पृ. अनुलोम. प्रतिरोग, श्रृंगार, करूण जनक उपसर्ग में असमर्म करेगी. अहो देवानुमेय ! यदि तुप उन के वचनों का आदर करागे अथवा मा जानोगे तो में री पीउपर से दूर राल दूंगा. और तम उन के वचन को अwai जानेगे या बादर न करोगे तो में तुप को दीपा देवी के Fहाथ से मुक्त करूंगा. तब मानिय पुत्रों कहने लमे कि अहो देवानुप्रिय ! जैसे तुम कहोगे बेमे की करते हुब हम रहेंगे ॥ ३३ ॥ तत्र पर लग याने शिानन में जाकर य समुद्रात करके संवाद | मनमायादुरकाका-मुबश्वमहामनीबालामममा. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600253
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages802
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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