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- षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4
दीवदेवया णिरसंसा कलुगं जिणरक्खियं सकलुमं सेलग पिट्टाहि उवयंत दासे, मउसित्तिं जपमाणी अप्पत्तं सागरसलिलं गिव्हिय बाहाहि भारसंतं उळू उब्धिहहिति, अबरतले उदयमाणंच मडलगेण पडिपिछत्ता, मिलुप्पलगवल असियप्पगासेणं असि. वरेणं खंडाखंडिं करेंति र त्ता तत्यविविलवमाणं तस्सय सरिसवाहियस्स घेत्तूणं अंगमगाति सरुहिराई उक्खित्तबलं चउदिसि करेंति सापंजली पहट्ठा ॥११॥ एवामेव समणाउसो!
जीअम्हं निग्गंथाणवा अम्हनिग्गंथीणवा अंतिए एवतिए समाणे पुणरविमाणुस्सए कामभोगे उस करुणाभाववाल शेलग यक्ष की पीठ से परसा हुवा जिनरक्ष को कालुष्यता सहित बोलने लगी. बरे दास ! अब तू मृत्यु के मुख में पाया है यो काका समुद्र के पानी में परते पहिले ही एसे आप से उठाकर आकाश में नछाला, यहां से पी परते अपनी असिपर उठाया, और अपने सर से उसके दुकडे टुका किया. उम विलाप करते हुये, अभिमानपूर्वक पध कराये जिनरक्षित के मंदिर सहित अमोपांग कर जैसे देवता को चारों दिशा में पलिते है वैसे ही उसके अंगोपांग को चारों दिशा डालकर बलि दिया ॥ ४२ ॥ अहो आयुष्यात श्रमणों! जैसे जिनरक्ष पुनः काममोग में मूपिछत होनेने खित हुवा वैसे ही हमारे कोई माधु,साधी की पास प्रबानिस बनकर मनुष्य संबंधी कामभोगों का पासाद
428-जनरक्ष जिनपाल का नववा अध्ययन 300
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