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पहाड्रातार्धपकथा का प्रथम श्रुतस्कंध 41
उवटाणसाला तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागइच्छत्ता सौहासणसनिसने ॥ ततेणं से सेलगराया पंथय पामोक्खाणं पंचमंतिसए सहावेति २ चा एवं प्रयासीएवं खलु देवाणुप्पियामिए मयस्स अंतिए धम्मे निसं सेवियमे धम्मे इच्छिए पडिइपिछए अभिरूईए तएणं अहं देवाणुप्पिया ! संसार भउविग्गे जाव पचयामि, तुब्भेमं वाणुप्पिया ! किं करेह, किं बसए, किं पातेहियइछिए सामस्थे ॥५॥ ततेणं से पंथय पामोक्खा संलयरायं एवं बयासी-जइणं सुम्भे देवाणुप्पिया ! संसार जाव पत्रयह, अम्हेणं देवाणुप्पिया ! कि भन्ने आहारेवा, आलंधवा,
अम्हेवियणं देवाणुपिया ! संसारभउबिग्ग जाव पम्बयामो, जहाणे देवाणुप्पिषा ! मंधियो को पोलाकर ऐसा कहा कि मैंने एक अनगार की पास से धर्म श्रवण किया है. यही धर्म मैंने इच्छा है इस की मुझे अभिरूचि हुई है. अहो देवानुप्रिय ! इम से मैं संसार भप से उदिन बना हुआ दीक्षा अंगीकार करूंगा. अहो देवानप्रिय! तुम क्या करोगे, कसं रोग व तुम्हारे हृदय में क्या ॥ तत्र वे पथक प्रमुख ..पांचसो मंत्रियों बोलने लगे कि अहो देवानुगिय ! जब आपही दीक्षा लेते हैं तो हम को अन्य वि.स का आधर पा अवलम्बन है. अहो देवान प्रिय ! हम भी संसार भय से उद्विय बने
+ सेलग राजर्षि का पांचवा अश्ययन
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