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ऋपनी * अनुवादक:बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख
वयासी-खिप्पामेव भो देवाणु प्पिया ! हेय जात्र सेणं सन्नहिह जाव पच्चप्पिणंति ॥११४॥ ततेणं से कु भएराया आहाए सन्नद्धबद्धे जाव हत्थिखंधवरगए सकोरटेंमल्ल दामेणं छत्तेणं संयचामराहिं धारिजमाणे मिहिलंगयहाणि मज्झं मज्भेणं निगच्छइत्ता २ त्ता विदेहं जणवयं मझमझेणं जेणेव देसपंते तेणेव उवागच्छइ २त्ता खंधावार निसं करेइ २ ता,तएणं जियसत्तु पामोक्खा छप्पिरायाणो पडिबालेमाणा २ जुनसज्जे पडिचिटुंति ॥ ११५ ॥ ततेणं जियसत्तु पामोक्खा
छाप्पयाणो जेणेव कुंभएर अ तेणेव उवागच्छइ २ ता कुंभरणं रण्णासद्धिं संपलग्गोजाया देवान प्रेय ! अव य यन् हथियार बंध होकर यारत् मझे मेरी आज्ञा पीछी दो. उमने वैना करके उनकी अ ज्ञा पीछी दी. ॥ ११४ ॥ कंभराजाने स्नान किया, हथियार बद्ध बनकर हाथीपर स्वार होकर कोरंट पूष्प मालाओं वाला छत्र व श्वेत चामरों से मिथिला राजधानी की बीच में से नीकल कर विदेह ।
में होता हुवा अपने देशकी परवापर अपन, कटक रखा. वहां जिन शत्रु प्रपुरख छ ही रानाओं कुं ल प्रीक्षा करते हुए यद्ध की तैयारी करके बैठे थे. ॥ ११५ ॥ जितशत्रु प्रमुख छही राजाओं कुंभराज की . सवा ओकर उन की साथ युद्ध करने लगे. युद्ध में जित शत्रु प्रमुख छ ही राजा माने कुंभराजा को हराया।
• पकाशक-नाजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसदाजी.
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