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सत्र
42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
st • कणगरयणखचिय उजलं बहुसमप्सुबिभत्तविचित्त रमणिजभूमिभागं ईहामिय .. जाव भत्तिचित्तं खंभुग्गय वयरवेइया परिगयाभिरामं विजाहर जमल,जुयल जंतं.
जुत्तं विव, अच्चीसहस्समालगीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं भिजिसमाणं
धक्खलोयणलेसं सुहफासं सस्सिरियरूवं कंचणमणिरयणभूमि मामं पाणाविह बनायी हुई थी, शालभांजिका पूतलियों की अच्छी तरह संधी मीलाइ थी, उस का द्वार मुंदर मनोहर था, अच्छे चैदूर्य रत्नोमय घोडले थे, अनेक चंद्रकान्तादि मणि, व सुवर्ण जडे हुवे थे, उस का भूमि भाग बहुत सम व विशाल था उस की रचना बहुत मनोहर थी, उस भवन में शाहमृग, सायनमृग यावत् वृषभ मनुष्य सागर, मच्छ, पक्षी, सर्प, किन्नर इत्यादि अनेक प्रकार के चित्रों मे चित्रित था, उस भवन में स्थंभों पर वज्रमय बेदिका थी, उस भवन में अनेक विद्यधरों के युगल सम श्रेणि में अनेक कार्य करते हुए दीखने में आत थे. वह भवन हजारों सूर्य की कारणों से अचिंत होरहा था, हजारों चित्रों सहित था, वह भवन अतिशय देदीप्यमान होरहा था, आंखों को देखने योग्य.था, उस का स्पर्श आनंद दाता था, उप भुवन के अंदर की भूमि का चंद्रकान्तादि मणि, सुवर्ण व कर्तनादि रत्नों अनेक चित्रों के आकार में जडे
उस की भूमिका रत्नमय होरही धी,उस भूमिकाके ऊर्य भाग में पांचों वर्णकी रणकती प्रधान झूलकती हुइ फरफराती हुइ पताकाओं से मण्डित था, उस भवन का आगे का शिखर श्वेत वर्णका
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी,
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