________________
-
-
:
षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 18
साहस्सीओ व्हाया जाव विभसिया जहा विभवं इडिसकारे समुदएणं अप्पेगतिया हयगया जाव अप्पेगतिया पायविहारचारणं जेणेव कण्हवामदेवे तेणेव उवागच्छइ २ ता करयल जाव कण्हवासुदेवं जएणं विजएणं वडाति, ततणं कण्हवासदेव कोटुबिय फुरिसे सहाति सहावेत्ता सिप्पामेव भो देवाणुपिया ! अभिसेक हस्थिरयणं पडिकप्पेह हय गय जाव पञ्चप्पिणति ॥ ५६ ॥ ततेणं से कण्हवासुदेवे जेणेव मजणघरे तणेष उवागच्छइ २ ता. समुत्तजालाभिरामे जाव अंजणगिरिकृड
सण्णिभं गयबरं नरबई दुरूढे। ॥९॥ततणं से कण्हेवासुदेवे समुद्दविजय पामोक्खहिं छपन्न हजार बलवंत पुरुषोंने स्नान किया यावत् सर्व अलंकार से विभूषित बमकर जैसा २ अपना ऋद्धि सत्कार समुदय था वैसे ही कोई हाथी पर बैठकर तो कोई घंडे पर.यावत् कोइ पांच से चलते हुए कृष्ण वासुदेव की पास आये और उनको जयविजय शब्द से पाये. तब कृष्ण वासुदेवने कौटुबिक पुरुषों को बोलाये और कहा कि अहो देवानुपिय ! अभिषेकवाला हस्तिरत्न सज करो और सायही हावी पांड रथ पाषदल वगैरह सब सज्ज करके मुझ मेरी माझा पीछी दो. उनोंने वैसही करके उनकी आज्ञा पीछीदी.॥१६॥ कृष्ण वासुदेव मोतियों की जालवाले स्नान गृह में गये यावत् अंजनगिरि पर्वत के कूट समान गमत | पर आस्ट हुवे. ॥१७॥ अब कृष्ण वासुदेव समुद्र विजय प्रमुख दश दशार पारत् अनंगमेश प्रमुख अनेक
Hद्रपदी का मोलहवा. अध्ययन +8+
1
-
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org