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षष्टांग ज्ञाताधकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4.28
पुरिम दरिसणंच, सेलग जक्खाहणंच, रयणदीवदेवयाउवसग्गंच, निणरक्खियरस विवत्तिच, लवणसमुह उत्तरणंच, चंपागमणंच, सेलगजखमापुच्छणंच,जहा भूयमवि तहमसंदिद्ध पारकहति ॥ ततेणं से जिणपालिए जाव अप्पसोगे जाव विउलाति भोगभोगाति भुजमाणा विहरति ॥ ४६ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सभणे भगवं महावीरे जेणेव चंपाणयरी जेणेव पुण्णभइ चेइए तेणेव सभासढे, परिसा णिग्गया कृणिओविराआ णिग्गआजिणपालिए धम्मं सोचा पवइत्तए,एक्कारसगावठ, मासिएगं, सोहम्मे कप्पे दो सागरोवमट्टिई जाव महाविदेहे सिझिहिति॥४७॥एवामेव समणाउमो ! जाव
माणुस्लए कामभागे णो पुणरवि आसाति,सेणं जाव बीतीवइस्सति,जहा वासे जिणपालिए देवी के मर्ग का, जिन रक्षित को करने का,बवण समुद्र से पार कतरने का, चंपा नगरी में भानका व शेटग यक्षका पूछकर मानेका वगैरह सब कथन नेमा बनाया बैमा संदेड रहित कह दिया. तत्पश्चात् जिन पाल यावत् अल्प शोकवाला यात विपुल भोग भोगता हुवा विचरने लगा ॥ ४॥ स काल सस १ सय में श्रमण भगवंत महावीर सहामी पधारे, धर्ष सुनकर दीसा अंगीकार की अग्यास अंग का अध्ययन इकिवा, सौधर्म देवलोक में दो सागरोपम की स्थिति से उत्तम हा और महाविदह क्षेत्र में गिझेंगे यावत् 'मत होंग ॥४७॥ मनुष्य के काममानों का भासाइन नहीं करने में जैसे जिनप.ल मक्त में जायेंगे
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जनरक्ष जिनपाल का नववा अध्ययन 4.28.5
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