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अनुवादक-नावमचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिकी
नो परिजानंति नो अब्भुढेइ नो अंजलिं करति इट्टाहिं जाव नो संलवतिनो पुरओय :पिटुओय समणुगच्छति ॥ ५२ ॥ ततणं तेयलि पुत्त जेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छइ जावियसे तत्थ बाहिरिया परिसा भवंति दासेतिवा पेसेतिबा भाइल्लतिवा सावियण णो अढायति जावियस अभंतरिया परिमा तंजहा-पियातिबा मातातिवा जाव सुण्हातिवा सावियणं णो अढाति ॥५३॥ ततेणं से तेयलि पुत्ते जेणब वासघर :जेणेव सयाणिजे तेणेव उवागच्छति, सयणिजंसि निसीयति २ ता एवं वयामी
एवं खलु अहं सयातो गिहाता जिग्गच्छामि तंत्र जाव अभितरिया परिसा य वे भी उन को आदर सत्कार नहीं देने लगे, स्थान में खड़े हुवे नहीं यावत् पहिल पीछे व दोनों बाजु रह कर इष्ट कारी वनों बेल कर उन की साथ नहीं जाने लाग ॥ ५२॥ फोर वह ततली पुत्र अपने गृह पाण और जा बाहिर की परिषदा के दास प्रषक व नोकरों थे वे भी आदर सत्कार नहीं करने लगे वैसे ही अध्यंतरे परिषदा वाले मात पिता यावन् पत्राने भी उन का आदर सत्कार किया नहीं ॥ ५३ ॥ तब तेतली पुत्र अपनें वाम गृह में शयन की पाम आया. उस पर सोना हुआ ऐमा बालने लगा कि में अपने गृह से नीकल कर कनकध्वज राजा की पास ग्य परंतु उनोंने परा आदर
प काशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजो स्वालामवादी
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