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नवादक-बालनाचारी मुनिश्री.अमोलक ऋपिजी -
अहं देवाणुप्पिया ! सकश्यणं । द्विय तंत्र जाब विउत्ता त जाय अई . देवाणुपिया ! लवण समुहे जाव एडमि ताव तो इहेव पासायवार्डपए. सुई सुहेणं अभिरममाणा चिट्ठह ॥ २० ॥ जहणं तुझे एयगसि अंतरसि उधिग्गावा उस्तुयावा उप्पुयावा भवेजा, हताणं तब्भे पुरस्थिमिजं वणखंडं गच्छज्जाह, तत्थणं दो ऊऊ सया साहाणा तंजहा-पाउसेय वासारत्तेय ॥ गाथा ॥ तत्थ कक्लसिलिंधरती निउरवपुप्फयीवरकरो, कुडयज्जनीवसुरभिदागो, पाउस ऊऊ गयवरो साहीणी
॥ १ ॥ तस्थयसुरगोपमणिविचित्ते दुदुर कुल २सिय उज्झर रखो, घरहिणविक कि अहो देवानुप्रया ! शक देवेन्द्र के आदेश में यावत् में नियुक्त वही हूं. इस से भर लग में लवण समुद्र में यावत् सब कचवर एकांत में डाल दूं वहां लग प्रासादावनमक, पर नुम सुख पूर्वक रहो ॥ २०॥ इतने समय में यदि तुम को उद्वेग, उत्सुकता अथवा उत्पान होवे तो तुम पूर्व दिशा के वन खण्ड में जाना, वहाँ दो ऋतु के सख सदैव स्वाधिन है. जिन के नाम-प्रवृनु (श्रावण भाद्रपद माम में वर्तमवाली) और वात (आश्विन कातिक पास में वर्तवाली) इन दोनों मुखों का वर्णन गाथ कहने है. कंदली तयां सिम्ध्रिवृक्ष रूप दारूवाला, निउ वृक्ष के पुष्प रूप स्थूल मूंद वाला, कुटज, अर्जुन, व
.काशक-राजबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाममादकी.
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