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4. षष्टङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्व
॥ १३० ॥ तते जियसत्तु पामोक्खा मल्लिएस अरहओ अंतिए एयमटुं पीडसुणेति ॥ १३१ ॥ ततेणं मल्लीअरहा ते जियसत्तु पामोक्खाछण्ह रायाणगहाय जेणेव कुंभएराया तेणेव उब!गच्छइ २त्तां कुंभगस्स पाएसुपाडेति । १३१ । एणं कुंभएराया ते जीयसत्तु पामोक्खाणं त्रिउलेणं अमणपाणं खाइमं साइमं पुप्प वत्थ गंध मल्लालंकारेणं सक्कारेति सम्माणेति सक्कारेता समाणेत्ता जाव पडिविसज्जेति ॥ १३२ ॥ ततेणं ते जिसत्तु पामोक्खा कुंभएरन्ना विसज्जिया समाणा अशेवसाति २ रज्जाति, जेणेव नगराई तेणेव उवागच्छ २चा सग हं २ रजाई उपसंपद्धित्ताणं विहरति ॥ १३३ ॥ ततेणं मल्लीअरहा संबंच्छरसाणे निक्खमिस्सामिचिमगं संपहारेति ॥ १३४ ॥ तेणं कालेणं तेणं
| ॥ १३०॥ जितशत्रु प्रमुख छही राजाओं ने इस बात को स्वीकार की ॥ १३१ ॥ मल्ली अरिहंत जितशत्रु प्रमुख छ ही राजाओं से नाथ लेकर कुंभराजाकी पाम अई और उन के पांच में पाडे ॥ १३१ ॥ कुंभराजाने जितशत्रु प्रमुख छराजाओं को विपुल अशनादि चारों आहार पुष्प, वस्त्र, गंध, याला व अलंकार से सत्कार सम्मान देकर यावत् सर्व किये ॥१३२|| कुंभराजाने जिशत्रु प्रमुव छ हो राजाओं को बिसर्जन करने पर वे वहां से निकलकर अपने २ नगर में आये. और अपना २ राज्य करते हुवे विचरने लगे ॥ १३३ ॥ इस समय मल्ल- अरिहंत को एक संवत्सर के पर्यवसान में मैं निकलूंगा ऐसा पन में निश्चय किया ॥
९३४ ॥ उस
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+++ श्रीमल्लीनाथजीका आउवा अध्ययन 4+
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