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ज्ञताधर्मकथा का प्रथम श्रुनस्कन्ध
सतेणं तेर्सि जाव बहूणिं उप्पाइय सयाति जहा मागंदिय दारयाणं जाव कालियवाए एत्थसमुच्छिए ॥ तेणं कालियवातेणं सा णावा आहुणिजमाणी २ संचालिजमाणी २ संखोहिजमाणी तत्थेव परिभमयति ॥ ४ ॥ ततेणं से णिज्जामए णटुमतिते णट्ठसुइते, ‘ण?सन्ने, · मूढदिसाभाए जाएयावि होत्था, णजाणइ कयरं देसंवा दिसिंवा विदिसि पयवाहणा वहिए त्तिक्कट ओहयमण
संकप्पे जाव ज्झियायति ॥ ५॥ ततेणं ते वहवे कुच्छिधाराय कन्नधाराय, मज्झि यावत् लवण समुद्र में अनेक सो योजन चले गये. वहां जाते मार्ग में जैसे मादिय पुत्रों को उत्पात हुवा था वैम सेंकडों उत्पात हुए यावत् प्रतिकूल वायु होने लगा वहां तक कहना. प्रतिकूल वायु से कंपाय-4 मान होती चलित होती, व क्षब्ध होती वह नावा इधर उधर परिभ्रमण करने लगी ॥ ४ ॥ तब नाव) 2 चलानेवाला नियामक गनि श्रुति व मंज्ञा मे शून्य होने से दिशा का भान भूल गया. और मावा किस देश में अथवा कौनमी दिशा में जाती है उस का ज्ञान भी उसे रहा नहीं. इस से मन में संकल्प विकल्प करता हुवा यावत् आत ध्यान करने लगा ॥५॥ उस समय वहां रहनेवाले बहुत चाटुए धारण करनेवाले 90 जा संभ धारण करनेवाले. सांयात्रिक पिकों निर्यामक की पास-गये श्रीर कहा अही देवानुमिथ
अ.कर्ण जनि के घोडे का सत्तरवा अध्ययन
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