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सूत्र
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ऋषिजी
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49 अनुरादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री
॥ सप्तदश अध्ययनम् ॥ जतिणं भंते ! समणेणं भगवया माहबीरणं जाव संपत्तेणं सोलसमस नायज्झ... यणस्स अयमढे पन्नत्ते, सत्तरसमरसणं भंते ! जायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपेत्तेणं के अट्रे पन्नते ? । १॥ एवं खलु जंबु ! तेणं कालेणं तेणं समएणं हथिसीसे नाम नयरे होत्था वणओ, तत्थणं कणगकेऊणाम राया होत्था वणओ ॥ २॥ तत्थणं हत्थिसीसं जयरे बहवे संजत्ताणावा वाणियगा परिवमंति ॥ अड़ा जाव अपरिभ्यायावि होत्था ॥ ३ ॥ ततेणं तेसिं संजुत्ताणावा वाणियगाण अन्नयाकयाइ एगयआ साहियाणं जहा अरहणए जाव लवणसमुद्दे अग्रेमाता जायणसपाइं उगाढायावि होत्था ॥ श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने हाता मूत्र के सोलहवा अध्ययन का यह अर्थ कहा तो सत्तरहवा अध्ययन का क्या अर्थ कहा है. ? ॥ १॥ अहो जम्बू ! उपकाल उस समय में हस्ति शीर्ष नामक नगर F था उनमकनक केतु राजा राज्य करता था. ॥२॥ उस हस्तिशीर्ष नगर में बहुत सांयात्रिक (जहाजा
से व्यापार करने वाले) व्यापारी रहते थे. वे ऋद्धिवंत यावत् अपराभूत थे. ॥ ३ ॥ जैसे अरहनक श्रबकने सब मिलकर विदेश गमन का विचार किया था वैसे ही इनोंने विदेश ममन का विचार किया।
काशक सजावहादुर लालासुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसाद
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